Tuesday, April 14, 2020

नायिका के अनुभाव



नायिका के अनुभाव



मनोगत भाव की वाह्य क्रि‍याओं एवं गुण-वैशि‍ष्‍ट्य (गति‍हीनता, संज्ञाशून्‍यता, जड़ता, स्वेद, रोमांच आदि‍) के प्रभाव, प्रति‍क्रि‍या, चेष्‍टादि‍ को अनुभाव कहते हैं। इन चेष्‍टाओं से चित्त के भाव प्रकाशि‍त होते हैं। काव्य-रस के चार प्रमुख तत्त्‍वों में से यह एक है। 'भाव' में लगे 'अनु' उपसर्ग से यह शव्‍द बना है, क्‍योंकि‍ इसी के अनुसरण से कर्ता के चि‍त्त में भावों का वि‍स्‍तार होता है; उनके हावों, चेष्‍टाओं, क्रि‍याओं में वि‍वि‍धता आती है, रसोद्भव का मार्ग प्रशस्‍त होता है। कि‍न्‍तु अनुभाव अथवा नायिका के अनुभाव से सम्‍बन्‍धि‍त चर्चा से पूर्व इसकी उपादेयता की चर्चा आवश्‍यक है। इसलि‍ए सर्वप्रथम रस-नि‍ष्‍पत्ति‍ की सामान्‍य चर्चा करनी होगी।
भरतमुनि के रस-सूत्र 'वि‍भावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद्रसनिष्पत्ति:' से ज्ञात होता है कि‍ विभाव, अनुभाव और संचारी (व्यभिचारी) भावों के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है। ऐसा वस्‍तुत: सहृदय मनुष्‍य के चि‍त्त में बसे स्‍थायी-भाव के कारण होता है। वृत्ति‍-संलि‍प्‍ति‍ और परि‍स्‍थि‍ति के अनुसार मनुष्‍य के हृदय में जागृत वि‍कार प्रेम-अनुराग, हर्ष-वि‍षाद, शोक-सन्‍ताप आदि‍ को भाव कहा जाता है। उल्‍लेखनीय है कि‍ चि‍त्त मनुष्‍य के सारे वि‍कारों (भावों) का उद्गम-स्‍थल है; यहाँ बसे स्‍थायी भावों की संख्‍या मूलत: नौ मानी गई हैं -- रति‍, शोक, क्रोध, उत्‍साह, हास्‍य, भय, जुगुप्‍सा, वि‍स्‍मय, नि‍र्वेद। ये स्‍थायी-भाव ही वि‍भि‍न्‍न चेष्‍टाओं से परि‍पुष्‍ट होकर क्रमश: शृंगार, करुण, रौद्र, वीर, हास्‍य, भयानक, वीभत्‍स, अद्भुत, शान्‍त रस में परि‍वर्ति‍त हो जाते हैं। कि‍न्‍तु चि‍त्त-वृत्ति‍यों के अनुसार आचार्यों ने इसके चैंतीस रूप गि‍नाए हैं -- नि‍र्वेद (वैराग्‍य), ग्‍लानि‍, शंका, असूया (ईर्ष्‍या), मद, श्रम, आलस्‍य, दैन्‍य, चि‍न्‍ता, मोह, स्‍मृति‍, धृति (धैर्य)‍, व्रीड़ा (लज्‍जा, नम्रता), चपलता, हर्ष, आवेग, जड़ता, गर्व, वि‍षाद, औत्‍सुक्‍य, नि‍द्रा, अपस्‍मार (मूर्छा), सुप्‍त, वि‍बोध (चैतन्‍य), अमर्ष (असहि‍ष्‍णुता), अवहित्‍थ (भावगोपन), उग्रता, मति (इच्‍छा)‍, उपालम्‍भ, व्‍याधि‍, उन्‍माद, मरण, त्रास, वि‍तर्क आदि‍। चि‍त्त की ये समस्‍त वृत्ति‍याँ भाव हैं। भाव के तीन सोपान होते हैं -- वि‍भाव, अनुभाव, संचारी भाव ('संचारी' को कुछ लोग 'व्‍यभि‍चारी' भी कहते हैं, क्‍योंकि‍ ये स्‍थायी न रहकर सभी रसों में संचरण करते रहते हैं)। इन भावों के उदि‍त होने पर कर्ता (आश्रय या आलम्‍बन) द्वारा की गई चेष्‍टाएँ हाव कहलाती हैं।
मनुष्‍य के हृदय में भावोदय या भावोद्दीपन सामान्‍यतया कि‍सी प्रि‍य पात्र, परि‍चि‍त, स्‍मृति ‍में बस गए दृश्‍य के अनुस्‍मरण, चि‍त्त को उद्बुद्ध कर देनेवाले दृश्‍य, प्रसंगादि से सामना होने पर होता है। चि‍त्त में बसे इस स्थायी भाव को उदबुद्ध करनेवाले कारणों को विभाव कहते है। अर्थात् मन में भाव उत्‍पन्न करनेवाले व्यक्ति‍, वस्‍तु, प्रसंग, स्‍थि‍ति वि‍भाव कहलाते हैं। ये दो प्रकार के होते हैं -- जिस पात्र, भाव या वस्तु के कारण भाव उदि‍त होते हैं, उन्‍हें आलम्‍बन और हृदय में स्थायी भाव जाग्रत करने वाले प्रसंग, दृश्‍यादि‍ को उद्दीपन कहते हैं। आलम्‍बन के दो स्रोत होते हैं -- जि‍स पात्र में भाव जागृत हो, उसे आलम्‍बन-आश्रय और जि‍स वृत्ति‍ में प्रवृत्त होने के लि‍ए भाव जागृत हो, उसे आलम्‍बन-विषय कहते हैं। उद्दीपन भी दो कारण से होते हैं -- आलम्‍बन (आश्रय) की उक्तियों एवं चेष्ठाओं से हुए उद्दीपन को आलम्‍बन-गत उद्दीपन और वातावरण आदि‍ के कारण उत्‍पन्‍न उद्दीपन को बर्हिगत उद्दीपन कहते हैं।
आलम्‍बन-आश्रय की जि‍न चेष्‍टाओं एवं आलम्‍बन-वि‍षय के प्रसार की जि‍न क्रि‍याओं से रति आदि भावों की उत्‍पत्ति‍ होती है, उन्‍हें अनुभाव कहते हैं। जैसे नायि‍का के कटाक्ष, संकोच आदि‍ चेष्टाओं से नायक के हृदय में रति‍ भाव की उत्‍पत्ति‍ होती है। कर्ता के यत्‍न की दृष्‍टि‍ से अनुभाव के दो प्रकार होते हैं -- यत्‍नज और अयत्‍नज -- आलम्‍बन (आश्रय) द्वारा यत्‍नपूर्वक की गई चेष्‍टा यत्‍नज अनुभाव है, जैसे नजरें फेरना, कटाक्ष करना आदि‍; कि‍न्‍तु बि‍ना कि‍सी यत्‍न के, अनायास कोई चेष्‍टा प्रकट हो जाए, तो उसे अयत्‍नज अनुभाव कहते हैं, जैसे कि‍सी भयकारी दृश्‍य के सामने आ जाने पर स्‍तब्‍ध हो जाना। व्‍यवहार की दृष्‍टि‍ से ये चार कोटि‍ के होते हैं -- कायिक, वाचिक, आहार्य, सात्विक। कोई-कोई मानसिक अनुभाव का भी उल्‍लेख करते हैं। अंगराई, कटाक्ष, मुस्‍कान, संकोच, भृकुटि‍-भंग आदि तन की कृत्रि‍म चेष्‍टाओं को कायि‍क अनुभाव; लुभावने और संकेतार्थक वाग्व्यापारों को वाचिक अनुभाव; मन में उठे भावों के अनुकूल भि‍न्‍न-भि‍न्‍न कृत्रि‍म वेश-रचना को आहार्य अनुभाव; अन्‍त:करण के वि‍शेष धर्म 'सत्त्‍व' से उत्‍पन्‍न हृदयगत भाव को प्रकट करनेवाले अंग-वि‍कारों (स्‍वेद, रोमांच, स्‍वरभंग, अश्रु, कम्‍प आदि‍) को सात्त्‍वि‍क अनुभाव; अन्‍त:करण की भावनाओं के अनुकूल मन में उठे हर्ष-वि‍षाद आदि‍ के उद्वेलनों को मानसि‍क अनुभाव कहते हैं। कुछ आचार्यों ने नायि‍का के अलंकारों और हावों की गणना भी अनुभाव के अन्‍तर्गत की है। चूँकि‍ आलम्‍बन-आश्रय की चेष्‍टाएँ अनुभाव की कोटि‍ में आती हैं, इसलि‍ए इन्‍हें उद्दीपक अनुभाव मानने में कुछ अनुचि‍त भी नहीं है।

काव्‍य में उपादेय नायिकाओं के कुछ प्रमुख अनुभाव हैं -- उद्दीपन, भाव, हाव, शोभा, कान्ति, दीप्ति, माधुर्य, प्रगल्भता, औदार्य, धैर्य, विभ्रम, मद, मौग्ध्य, लसित, चकित, केलि, लीला, विलास, विच्छति, बिब्बोक, संयोग, वियोग, साहचर्य, विभाव, अनुभाव, संचारी भाव, अभिसार, आलिंगन, रति आदि‍। अवसर के अनुकूल नायिकाओं के इन्‍हीं अनुभावों के प्रभाव से नायक के हृदय का प्रेम उद्वेगमय होता है, घनीभूत होता है। शृंगार-काव्‍य के तत्त्‍व पुष्‍ट होते हैं। प्रमाता के हृदय में काव्‍य-रस की नि‍ष्‍पत्ति‍ होती है।

उल्‍लेख हो चुका है कि चि‍त्त में उत्‍पन्न होनेवाले वि‍कार ‍को भाव कहते हैं और भाव उदि‍त होने पर नायि‍का द्वारा की गई चेष्‍टा को हाव। नायि‍काएँ अपने हाव-भाव की इन वि‍भि‍न्‍न चेष्‍टाओं से नायक की वि‍ह्वलता को उत्तेजि‍त करती हैं। काम-भाव जगा-भड़काकर प्रेमी को उत्तेजि‍त करने की वृत्ति‍ को उद्दीपन कहते हैं। इससे नायक की व्‍याकुलता बेशक बढ़ती है, कुछ देर के लि‍ए वह छटपटाता है, कि‍न्‍तु आसन्‍न कामावेग में आनन्‍ददायी वृद्धि‍ होती है; काव्‍य में रस का पोषण-वर्द्धन तो होता ही है। संलि‍प्‍त क्रि‍या में, अर्थात्, प्रेम-व्‍यापार में सन्‍नद्ध कुशल, दक्ष, प्रत्युत्पन्नमतिसम्‍पन्‍न, स्पष्टवादी नायि‍का प्रगल्भा कहलाती है। ऐसी नायि‍का के इन गुणों को प्रगल्‍भता कहते हैं। इन्‍हें अपनी दक्षता, सौन्दर्य एवं प्रेमासक्ति पर पूर्ण विश्वास होता है। ये अपनी भावनाओं एवं क्रीड़ासक्ति‍ को अभि‍व्‍यक्त करने में मुखर, नि:शंक, कुशल और दक्ष होती हैं। प्रेमावेग के समय ये अपने धैर्य, माधुर्य, दीप्ति, कान्ति और शोभा को प्रकट करने में दक्ष होती हैं। नायि‍का के सौन्‍दर्य एवं मनोहर छवि को शोभा ‍। काम-भाव की चमक का प्रकाशि‍त होना दीप्ति कहलाता है, इसे प्रकारान्‍तर से कान्‍ति‍ भी कहते हैं। आवेग के बावजूद ये ऐसे क्षणों में धैर्य से काम लेती हैं, वि‍कारों के बावजूद चि‍त्त की वि‍कृति प्रकट नहीं होने देतीं, चि‍त्त से दृढ़ रहती हैं। लसित (क्रीड़ाशील) रहती हैं; मौग्ध्य (मुग्‍धता), मद (उन्‍माद), माधुर्य (लावण्‍यमय व्‍यवहार, सहज सौन्‍दर्य का भाव), औदार्य (कामवेग की उदारता या महत्ता) में रहती हैं; कि‍न्‍तु चकित (वि‍स्‍मि‍त, भौंचक, आश्‍चर्यि‍त) होना, विभ्रम (इधर-उधर भ्रमण करना, मँडराना) में पड़ना नहीं छोड़तीं। सदैव केलि (कामक्रीड़ा, रति‍, हँसी-मजाक), लीला (वि‍लास, वि‍हार, शृंगार-चेष्‍टा, प्रेमी का अनुकरण), विलास (आनन्द, प्रमोद, सुखोपभोग) की सघनता को सम्‍पुष्‍अ बनाने की चेष्‍टा करती हैं। विच्छि‍ति (थोड़े-से शृंगार में भी पुरुष को सम्‍मोहि‍त करने की कला) से भरी रहती हैं। मौका पड़ने पर बिब्बोक (सगर्व उपेक्षा, रूप-राशि ‍या यौवनादि ‍के गर्व में प्रि‍य की उपेक्षा) का उपयोग कर रति‍-भाव को और सघन और तृषि‍त बनाती हैं। प्रेमी-प्रेमि‍का के मि‍लन की स्‍थि‍ति‍ को संयोग; प्रेमी से पार्थक्‍य के कारण चि‍त्त की आकुल दशा या वि‍रह को वियोग; साथ-संगति‍में रहने को साहचर्य; लि‍पटने, गले लगने, अंक में भर लेने को आलिंगन; प्रेम, अनुराग, प्रीति‍, आसक्‍ति‍, सम्‍भोग, मैथुन, सौन्‍दर्य, शोभा आदि‍ भाव प्रकट करने को रति‍; प्रि‍य-मि‍लन के लि‍ए कि‍ए गय अभि‍सरण को अभिसार कहते हैं।
इस तरह विभाव, अनुभाव की इन सभी चेष्‍टाओं में गति‍शील रहकर, स्‍थायी-भाव को पुष्‍ट करते हुए वि‍लीन हो जाने वाला भाव संचारी भाव कहलाता है। इसके उदि‍त होने से कई नि‍यमों का उल्‍लंघन भी होता है। क्‍योंकि‍ भावोद्रेक की धारा तीव्र वेग के नदी की तरह बहती है, वह कि‍सी अनुशासन से नहीं अपने उद्वेग से नि‍र्देशि‍त होती है। सम्‍भवत: इसी कारण इसे व्यभि‍चारी भाव भी कहते हैं। 

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