Monday, February 10, 2020

प्रमुख प्रगति‍वादी कवि‍, उनकी साहित्‍यि‍‍क वि‍शेषताएँ तथा अन्‍तर्वस्‍तु



प्रमुख प्रगतिवादी कवि‍, उनकी साहित्‍यि‍ विशेषताएँ तथा अन्‍तर्वस्‍तु
प्रस्‍तावना
प्रगतिवाद कोई मान्‍यता नहीं, चेतना है; जि‍सका पल-पल विकास होता रहता है। इसमें युग सम्मत प्रगति चेतना भरी रहती है--मान्यता पुरानी हो सकती है, चेतना नहीं। चेतना पल-पल नूतन होती जाती है; समाज के लिए मानवीय और मानव के लिए सामाजिक होती जाती है; सुन्दर और कलात्मक होती जाती है। यहाँ नए के प्रति बेवजह आग्रह नहीं होता, पुराने के प्रति बेवजह घृणा नहीं होती। साहि‍त्‍यि‍क धारा के रूप में एक संयमित विवेक के साथ इसका प्रवेश और आह्वान हुआ। इसीलिए यह नि‍रन्‍तर वि‍कासमान रहा।
मनुष्‍य एवं मानवीयता की गहन समझ इसकी मौलिक संरचना में है। चेतना और विचार से इसके गहरे ताल्लुकात हैं। इसमें मार्क्‍सवाद, साम्यवाद, यथार्थवाद, सामाजिक यथार्थवाद, आदर्शोन्मुख यथार्थवाद, द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद, समाजवाद...जैसे ‍कई मानवीय मूल्‍यों के सूत्रों का समावेश है। इसकी चेतना में स्‍पष्‍ट है कि यह सृष्टि पल-पल परिवर्तनशील है। मनुष्‍य एवं मानवीय आचरण इस सृष्‍टि ‍का अत्‍यन्‍त मूल्‍यवान कारक एवं कारण है। अपनी इन्‍हीं वि‍शेषताओं के कारण प्रगति‍शील काव्‍य-धारा ने दूर तक अपनी आभा कायम रखी और कवि‍ता के जनसरोकार को प्रति‍ष्‍ठा दी। आचार्य हजारीप्रसाद द्वि‍वेदी ने सही कहा कि ‍'प्रगति‍शील आन्‍दोलन बहुत महान उद्देश्‍य से चालि‍त है। इसमें साम्‍प्रदायि‍क भाव का प्रवेश नहीं हुआ तो इसकी सम्‍भावनाएँ अत्‍यधि‍क हैं। भक्‍ति आन्‍दोलन में समय जि‍स प्रकार एक अदम्‍य दृश्‍य आदर्श-नि‍ष्‍ठा दि‍खाई पड़ी थी, जो समाज को नए जीवन-दर्शन से चालि‍त करने का संकल्‍प वहन करने के कारण अप्रति‍रोध्‍य शक्‍ति‍ के रूप में प्रकट हुई थी। उसी प्रकार यह आन्‍दोलन भी हो सकता है।'
ऐसा हुआ भी। अपने पूरे दौर में प्रगति‍वादी कवि‍ता की यह छवि‍ बरकरार रही। सूर्यकान्‍त त्रि‍पाठी नि‍राला और सुमि‍त्रानन्‍दन पन्‍त के रचनात्‍मक उद्यम से यह काव्‍य-धारा शुरू हुई। भारत में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना से दो दशक पूर्व सन् 1916 में ही 'जा तू प्रिये छोड़कर बन्धनमय छन्दों की छोटी राह' और 'जूही की कली' लि‍खकर नि‍राला छन्दबद्धता की तंग-राह से विदा ले चुके थे। सन् 1937 में सुमित्रानन्दन पन्त कोकिल के गान में अपनी इच्‍छा व्‍यक्‍त कर चुके थे-- 'गा कोकिल बरसा पावक कण, नष्ट भ्रष्ट हो जीर्ण पुरातन' और 'द्रुत झरो जगत के जीर्ण पत्र।' अर्थात्, कवि सारे जीर्ण, पुरातन को नष्ट कर देने वाली आग की इच्छा करने लगे थे, सब नष्ट हो जाएँ, बस लोगों के मन में आग की उज्ज्वलता बची रहे। बाल कृष्ण शर्मा 'नवीन' और रामधारी सिंह 'दिनकर' तो पहले से ही समूहवादी भावनाओं के हिमायती के रूप में जाने जा चुके थे। इस पाठ में इन्‍हीं धारणाओं से रचनाशील कुछ कवि‍-श्रेष्‍ठ की रचनात्‍मकता पर वि‍चार कि‍या जाएगा।
प्रगतिवाद के प्रमुख कवि
प्रगति‍वाद के दौर के प्रमुख कवि ‍हैं--सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला, सुमित्रानन्दन पन्त, रामधारी सिंह दि‍नकर, बाल कृष्ण शर्मा 'नवीन', नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, राम विलास शर्मा, गजानन माधव मुक्तिबोध, रांगेय राघव, त्रिलोचन शास्त्री, गिरिजा कुमार माथुर आदि।
निराला और पन्त तो प्रगतिवाद के प्रवर्तक कवि हैं। उत्तरछायावादी कहे जाने के बावजूद दि‍नकर अपनी रचनात्‍मकता के मूल स्‍वभाव में प्रगति‍शील ही हैं। मानवतावाद, यथार्थवाद, साम्यवाद, सामाजिक यथार्थ, द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद, वर्ग-संघर्ष, उत्पाद-वितरण के सामजिक दृष्टिकोण...आदि इनकी रचनाओं में प्रमुखता से अंकित हुआ है। सामूहिकता और आत्मनिर्भरता के सामर्थ्‍य से सराबोर और श्रम-शक्ति से भरपूर किसान-मजदूर के अन्तरंग चित्र इस कव्यधारा में अनुरागपूर्वक उपस्थित हुए हैं। गाँव, किसान-मजदूर के जीवन-गीत, श्रम-शक्ति पर आस्था, प्रकृति-प्रेम, प्रेम-प्रकृति, प्रकृति ‍में वि‍कासमान जीवनधारा...इन कवि‍यों की रचनाओं की मूल वृत्ति‍याँ दि‍खती हैं।
प्रगतिवादी कवियों की साहित्‍यि‍ विशेषताएँ एवं अन्‍तर्वस्‍तु
मनुष्‍य की इच्‍छा, अनि‍च्‍छा, प्रेम-अनुराग, दुख-दुविधा, सुख-सुविधा की समझ; रूढ़ियों और जड़ मनस्थितियों का खण्डन; राष्ट्रीय अस्‍मि‍ता के प्रति सजग दृष्टि; नीति मूल्य, जीवन-मूल्य, मानव-मूल्य, सम्‍बन्ध मूल्य की मौलिकता की समझ; जीवन की सहजता बाधित करने वाली
जर्जर मान्यताओं, पद्धतियों का तिरस्कार; प्रगति और परिवर्तन के प्रति चेतना; समाज को मानवीय और नैतिक बने रहने तथा अधिकार-रक्षण हेतु संघर्षोन्मुख रहने की प्रेरणा से समृद्ध करते हुए स्पष्ट सम्प्रेषण के प्रति सावधानी रखना...प्रगतिवादी साहित्‍य की अन्‍तर्वस्‍तु एवं मूल विशेषताएँ हैं। सामान्य जन की चित्तवृत्ति से इस काव्यधारा का सरोकार निरन्तर बना रहा। चराचर की हर वस्‍तु में उन्‍हें मानव-जीवन के सूत्र दि‍ख जाते हैं। ताजमहल देखकर सुमित्रानन्दन पन्त की जीवन-दृष्टि और मानव-मूल्य की समझ कराह उठी--
हाय मृत्यु का ऐसा अमर अपार्थिव पूजन
जब विषण्ण निर्जीव पड़ा हो मानव-जीवन
मानव ऐसी भी विरक्ति क्या जीवन के प्रति
आत्मा का अपमान, प्रेत औछाया से रति
मजार पर खड़ी इस इमारत में मनुष्य का मृतक से प्रेम तो दिखता है, यही पाठ, दूसरी तरफ जीवन से विरक्त होने के आचरण को भी धिक्कारता है। कवि-‍चेतना का यह बहुमुखी आयास चमत्‍कृत करता है।
सुमित्रानन्दन पन्त की ख्याति छायावाद के पुरोधा कवि के रूप में अवश्‍य है, कि‍न्‍तु तथ्‍यत: वे प्रगति‍शील काव्‍यधारा के प्रवर्तक भी हैं। राष्ट्र प्रेम, स्वातन्त्र्य-कामना, स्वच्छन्तावादी प्रवृति इनके काव्य में भरी हुई है। छायावाद युग की स्वच्छन्दता और प्रकृति-प्रेम इनके काव्य का विशेष विषय रहा। युगान्त (1936), युगवाणी (1939), ग्राम्या (1940) को प्रगतिशील काव्य का उदाहरण माना जाता है। इनकी अन्य प्रमुख कृतियाँ हैं--उच्छ्वास (1920), वीणा (1927), पल्लव (1928), गुंजन (1932), युगपथ (1948), वाणी (1957), लोकायतन (1964) आदि।
प्रगतिशील काव्यधारा के कवि ‍ऐसे प्रतीकों से चित्र गढ़ते हैं कि प्रसंग प्राणवाण हो उठता है। गाँव-देहात का अकृत्रिम जीवन, जीर्ण स्वास्थ्य, ठेंठ दृश्यावली हर कोई देखता है, परन्‍तु ग्रामीण परिदृश्य और जनपदीय भदेसपन जब प्रगतिशील कवि ‍देखते हैं, तो उन्हें वे लोग अभाव, भूख, कुपोषण, शोषण के भुक्तभोगी दिखते हैं। बिम्ब में व्यंग्य का दंश तीक्ष्णतर करने में उन्हें सिद्धि प्राप्त थी।
कोई खण्‍डित कोई कुण्ठित, कृशबाहु पसलियाँ रेखांकित
टहनी-सी टांगें, बड़ा पेट, टेढ़े-मेढ़े विकलांग घृणित
जैसी पंक्‍ति‍ कवि-नागरिक के मन में साम्राज्यवाद, पूँजीवाद, शोषण, जीवन को असहज बनाने वाले आचरण और श्रमजीवियों के प्रति हिकारत भाव रखने वाले लोगों के प्रति घृणा, धिक्कार, क्रोध और तिरस्कार की ज्वाला उठा दी थी।
प्रगति-चेतना और आत्म-बोध ने उस दौर के इस धिक्कार और घृणा को कविता में व्यक्त करने का बेहतरीन तरीका व्यंग्य ही था। प्रगतिशील रचनाकारों ने इसे अपना अचूक हथियार बनाया। 'स्‍वानों को मि‍लता दूध' मगर भूख से अकुलाते बच्‍चों की बदहाली देखकर राष्‍ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर बि‍फर पड़े। संस्कृति के चार अध्याय पुस्तक के लिए साहित्य अकादेमी द्वारा सम्मानित, छायावादोत्तर काल में ओजस्वी कविता के रचनाकार दि‍नकर को प्रगतिवादी, जनवादी, मानवतावादी कवि के रूप में याद किया जाता है। इनकी प्रमुख कृतियाँ हैं -- रेणुका (1935), हुँकार (1938), रसवन्ती (1939), कुरुक्षेत्र (1946), रश्मिरथी (1952), उर्वशी (1961) आदि। उन्होंने आलोचनात्मक और चिन्तनपरक गद्य रचनाएँ भी विपुल मात्रा में कीं।
व्यंग्य का जितना बहुविध विकास प्रगतिवाद के दौर में हुआ, उतना शायद ही पहले कभी हुआ हो। यहाँ व्यंग्य में भी प्रयोग दिखता है। बड़े आराम से फरियाद, वक्तव्य और प्रशंसा की तरह बात कही गई और अपने प्रभाव में उस बात ने विषबाण की तरह असर कि‍या। अपनी कविता 'प्रेत का बयान' में नागार्जुन अपने परिवेश के आर्थिक, राजनीतिक ढाँचे का जर्रा-जर्रा उधेड़ देते हैं। एक प्रेत अपनी मृत्यु का कारण बताता है--
          भूख या क्षुधा नाम हो जिसका
          ऐसी किसी व्याधि का पता नहीं हमको
          सावधान महाराज,
          नाम नहीं लीजिएगा
          हमारे समक्ष फिर किसी भूख का
यमराज और मृत मास्टर के प्रेत के संवाद को अंकित करती यह कविता जमाखोरी, अभाव, भूख...सारे अवांछि‍त उद्योग-धन्धों को तहस-नहस कर देती है। अपना सारा उद्वेग समाप्त कर प्रेत कहता है --
          तनिक भी पीर नहीं
          दुख नहीं, दुविधा नहीं
          सरलतापूर्वक निकाले थे प्राण
          सह न सकी आँत जब पेचिश का हमला...
पूरी कविता व्यवस्था पर आघात करती है। जिस दौर के समाज की सबसे बड़ी विडम्बना भूख थी, उस दौर में एक मृतात्मा को, एक प्रेत को उस भूख शब्द से चिढ़ हो गई थी। वक्तव्य की यह सहजता ही यहाँ व्यंग्य का उत्कर्ष उपस्थित करती है। नागार्जुन का निम्न मध्य वर्ग थक जाने के बाद भी थकता नहीं, उसे अपने लक्ष्य तक पहुँचने की चिन्ता सवार रहती है। उनकी जनता अपने-अपने कामों में तल्लीन 'पूस मास की धूप सुहावन' का सुख चख रही है, उन्हें वह धूप घिसे हुए पीतल की तरह पाण्डुर लगती है, स्तन-पान करते गौर वर्ण के बच्चों के गाल की तरह मनभावन लगती है--
पूस मास की धूप सुहावन
फटी दरी पर बैठा चिर-रोगी बेटा
राशन के चावल से कंकड़ बीन रही पत्नी बेचारी
गर्म-भार से अलग शिथिल हैं अंग-अंग
मुँह पर उसके मटमैली आभा
छप्पर पर बैठी है बिल्ली
किसके घर जाने क्या कुछ खा आई है
चला चलाकर जीभ स्वाद लेती ओठों पर...
जलावान के अभाव में आगे का सब सुख छिन जाएगा; यह सुहानी धूप, उष्मा तो दे सकती है, वह आग और ताप नहीं दे सकती, जो अनाज पकाएगी। इसलिए कवि कहते हैं --
जहाँ कहीं से एक अठन्नी लानी होगी
वर्ना इस चूल्हे के मुँह पर फिर मकड़ी का जाला होगा...
मैथिली कविता संग्रह पत्रहीन नग्न गाछ के लिए साहित्य अकादेमी द्वारा सम्मानित कवि‍ नागार्जुन ठेठ जनपदीय भाषा, व्यंग्य शैली के अचूक प्रभाव, और आम जनता के जीवन से सहज विषय-वस्तु के चयन के लिए पूजित, प्रशंसित हैं। प्रगति चेतना इनकी भाषा और संस्कार का अंग थी। ये ताउम्र जनवादी कवि और जनचेतना के उन्नायक के रूप में जाने गए। घुमक्कड़ी इनकी अपनी सम्पत्ति थी। मैथिली में इन्होंने यात्री नाम से और हिन्दी में नागार्जुन नाम से सृजन-कर्म किया। हुए। इनकी प्रमुख काव्य कृतियाँ हैं-- युगधारा (1952), सतरंगें पंखों वाली, जूतियों का कोरस, खिचड़ी विप्लव देखा हमने, चन्दना, ऐसा क्या कह दिया होगा हमने... आदि। इनके कई उपन्यास प्रशंसित, बहुचर्चित हैं।
उधर केदारनाथ अग्रवाल की 'युग की गंगा' में श्रमजीवियों के खून पसीने से तैयार महल, अटारी, हाट, बाजार की चकाचौंध में श्रमजीवियों के श्रम ही अलक्षित रह जाते हैं। प्रगतिशील कवियों में इनकी भाषा सबसे अधिक कलात्मक थी। हिन्दी की प्रगतिशील काव्यधारा से इनका गहरा सम्बन्ध था। इनकी प्रमुख कृतियाँ हैं-- युग की गंगा (1947), नींद के बादल (1947), लोक और आलोक (1957), फूल नहीं, रंग बोलते हैं (1965), आग का आईना (1970), देश देश की कविताएँ (1970), अपूर्वा (1984), कहे केदार खरी खरी (1983), हे मेरी तुम (1981) आदि।
व्यंग्य और उद्घोषणा का यह क्रम पन्त और निराला के समय से ही चल पड़ा था। मानवता की दुहाई देते हुए उस दौर के सभी श्रेष्‍ठ कवियों के यहाँ श्रमिक, सर्वहारा, भिक्षुक, दीनहीन, समय के मारे लोगों के जीवन के यथार्थ दर्ज हुए। धिक्कार, पुकार, आह्वान, चेतावनी, धमकी, निर्णय... सारे स्वर इन कविताओं में दर्ज हुए। 'तोड़ती पत्थर' जैसी कई कविताओं में अंकित चित्र--व्यक्ति, समाज, व्यवस्था, जीवन, मानवता--जैसे बुनियादी तत्त्वों की निरर्थकता की ओर संकेत करने लगते हैं। निराला का 'भिक्षुक' भी 'दो टूक कलेजे के करता पछताता' पथ पर आता, मानवता को धिक्कारता है--
          पेट पीठ दोनों मिलकर हैं एक
          चल रहा लकुटिया टेक
          मुँह फटी-पुरानी झोली को फैलाता
समकालीन नागरिक परिदृश्य के मद्देनजर स्वतः जाग्रत भारतीय चेतना, किसान-मजदूर, श्रमिक-सर्वहारा सहित आम नागरिक का आत्मबोध और स्वातन्त्र्य-चेतना स्वयमेव पर्याप्त प्रगतिशील थी। सुकर और सुखकर यह हुआ कि विश्व फलक के राजनीतिक परिवर्तन, सांस्कृतिक जागरण और बौद्धिक उत्थान का सहयोग भी भारतीय मूल के इस आन्दोलन को मिला।... छायावाद के उन्नायक पुरुष में प्रतिष्ठा पाने के बावजूद हिन्दी साहित्य में सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला प्रगतिशील काव्‍य के प्रवर्तक माने जाते हैं। प्रगति‍शील चेतना का संकेत सर्वप्रथम महाकवि निराला के यहाँ ही दिखता है। छन्द, भाषा, शैली, भाव आदि के क्षेत्र में उन्‍होंने निरन्तर नई दृष्टि अपनाई और सदैव अग्रगामी रहे। परिमल की भूमिका में इन्होंने साफ- साफ लिखा कि 'मनुष्यों की मुक्ति की तरह कविता की भी मुक्त होती है। मनुष्य की मुक्ति कर्म के बन्धन से छुटकारा पाना है और कविता की मुक्ति छन्दों के शासन से अलग हो जाना है।' इस छोटी-सी पंक्ति में निराला की चिन्तन-दृष्टि का सूक्ष्म संकेत मिलता है। इन्होंने अपनी कहानियों, उपन्यासों और निबन्धों में भी अपनी अप्रतिम प्रगतिशील चेतना का परिचय दिया। जुही की कली, तुलसीदास, सरोज स्मृति, भिक्षुक, कुकुमुत्ता, वह तोड़ती पत्थर...जैसी उनकी कालजयी कविताएँ बहुचर्चित हैं।
किसान-जीवन के अभाव और अधैर्य को समर्थन देने हेतु जिस विप्लव के वीर का कवि ने व्यंग्य, धिक्कार, और आर्तनाद से आह्वान किया, वह वे स्वयं हैं, और समाज के सभी नागरिक भी हैं। मानव जीवन के इस अभाव और संकट को उन्होंने कई जगह दर्ज किया। किसानों के सम्बन्ध में निराला की संवेदना लेखन तक ही सीमित नहीं थी, सन् 1930 में वे आजादी की लड़ाई में सक्रिय हुए, जमीन्दार-किसान संघर्ष में भी उन्होंने किसानों का पक्ष लिया, उन्नाव जाकर उन लोगों की पैरवी की, और अपने उन्‍हें अनुभवों पर 'कुत्ता भौंकने लगा', 'झिंगुर डटकर बोला', 'छलांग मारता चला गया', 'डिप्टी साहब आए', 'महगू महगा रहा' शीर्षक से पाँच कविताएँ लिखीं। ये सभी और इसके आगे पीछे की निराला की अन्य कई कविताएँ हैं, जिनमें उन्होंने 'पूँजीवादी शक्ति' और शोषकों के आचरण पर कड़ा प्रहार किया है, जनशक्ति का आह्वान और किसानों की भलाई की बातें की हैं। हर अवसान में उन्हें किसी रोशनी, उदय, प्रभात, आभा की झलक दिखती है। व्यंग्य और धिक्कार की यह शैली प्रगतिवादी कविता में विषय वैविध्य के साथ अगली पीढ़ी में भी फली-फूली। दरअसल प्रगतिशील चेतना के साथ काव्य क्षेत्र में आए रचनाकारों ने काफी सोच-समझ कर इस क्षेत्र में अपने पाँव रखे थे।
सन् 1930-35 से लेकर सन् 1947-48 और उसके आगे सन् 1962 तक देश के विभिन्न भू-खण्डों और जनवृत्तों में तरह-तरह की घटनाएँ घटीं--बंगाल में अकाल पड़ा, द्वितीय महायुद्ध से उत्पन्न पराभव जन-जन के सिर नाचने लगा, नौ-सेना विद्रोह हुआ, सन् 1942 की शहादत हुई, देश आजाद हुआ, विभाजन हुआ, साम्प्रदायिक दंगों से खून की होली खेली गई, अंग्रेजी सांसत से देश मुक्त हुआ, जनता चैन की साँस लेने को सोच ही रही थी कि पण्‍डित जवाहर लाल नेहरू का राजनीतिक मोहभंग हुआ...निरन्तर घटनाएँ घटती रहीं। स्वेदशी शासन व्यवस्था में जिस तरह की जीवन-व्यवस्था की कामना लेकर प्रगतिशील लेखक आगे बढ़े थे, उन कामनाओं और सपनों पर तुषारापात हुआ। मगर प्रतिबद्ध रचनाकार विचलित नहीं हुए; डटे रहे। मैत्री का समझौता कर लेने के बावजूद जब दलाई लामा को अपने यहाँ शरण देने के जुर्म में सन् 1962 में चीन ने भारत पर हमला किया और लद्दाख में पन्द्रह बीस हजार वर्ग किलोमीटर भूमि पर कब्जा कर लिया तो शमशेर बहादुर सिंह ने अपनी कविता 'सत्यमेव जयते' में राष्ट्रीय संकट की इस घड़ी का संज्ञान लि‍या और पड़ोसी राष्‍ट्र चीन की धज्‍जि‍याँ उड़ा दीं। अपनी पूरी क्षमता, दक्षता के साथ जन-जन की प्रगति की कामना और उद्यम से भरी हुई हिन्दी कविता के दायि‍त्‍व-बोध का यह भी एक वि‍शि‍ष्‍ट प्रमाण है। चित्रात्मकता के आकर्षण से भरी कविता के श्रेष्‍ठ कवि‍ शमशेर बहादुर सिंह की कवि‍ता का मूल विषय गाँव, किसान, प्रकृति और मानव-जीवन रहा है। इनकी चर्चित काव्य पुस्तकें हैं -- कुछ कविताएँ (1959), कुछ और कविताएँ (1961), चुका भी नहीं हूँ मैं (1975), इतने पास अपने (1980), उदिता (1980), बात बोलेगी (1881) आदि।
गिरिजा कुमार माथुर 'शाम की धूप' में मध्यवर्ग की व्यथा व्यक्त करते समय थकान उतारने की चिन्ता में लीन हो जाते हैं, अस्ताचल को जाती धूप में मध्यवर्गीय थकान मिटाने की बेला के आने की कल्पना में खो जाते हैं--
घर के उस फूल पर यह मन की बून्द
ठहरना चाहती सुध-बुध खोकर
जिससे उतरे थकान तन-मन की
डूबकर रात की मिठासों में...
प्रयोगवादी सोच के रहने के बावजूद गिरिजा कुमार माथुर ने प्रगतिशील धारा की कविताएँ लिखीं। उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं--नाश और निर्माण (1946), धूप के धान (1955), पृथ्वी कल्प (1964)
त्रिलोचन शास्त्री को धूप में किसानों के खिले सरसों से भरे खेत का सौन्‍दर्य दि‍खता है, सारा जग सुन्दर दिखता है, प्रकृति चित्रण करते वक्त भी उन्हें मानव और जग याद आता है--
सघन पीली
ऊर्मियों में
बोर हरियाली सलोनी
झूमती सरसों
प्रकम्पित वात से
अपरूप सुन्दर
धूप सुन्दर
धूप में जग सुन्दर...
प्रगतिवादी कवियों की यही जनोन्मुखी लालसा, यही सौन्दर्यबोध, आम-जन के उल्लास में अपने सारे सुख और उल्लास की खोज करने की प्रवृत्ति उनकी काव्य दृष्टि को, रचना-कौशल को और जन सरोकार की बुनियाद को सम्पन्न किए हुए थी। यह धूप केदारनाथ अग्रवाल के यहाँ 'मैके आई हुई लड़की की तरह मगन होकर घूमती हुई' आती है। यह कवि की अन्तश्चेतना और लोकोन्मुखी चिन्तनधारा ही है कि उन्हें चीजों को देखने का अलग नजरिया देता है।
व्यंग्य, विवरण, धिक्कार, फटकार, घोषणा, धमकी...सभी तर्ज पर कविता सामने आई। पूँजीवाद के विरुद्ध मुक्तिबोध ने आवाज उठाई और उसका भविष्य निर्धारित कर दिया कि‍--
तू है मरण, तू है रिक्त, तू है व्यर्थ
तेरा ध्वंस केवल एक तेरा अर्थ...।
नरेन्द्र शर्मा ने गुलामी की 'जंजीर' तोड़ संघर्ष की 'दुधारी तेग' अपनाने को ललकारा--
एक ओर जंजीर, दूसरी ओर पड़ी है तेग दुधारी
जो चाहे ले आगे आ तू
रामविलास शर्मा ने योजना बनाकर सामन्त विरोध का सूत्र पकड़ाया --
बोना महातिक्त वहाँ बीज असन्तोष का
काटनी है नए साल फागुन में फसल जो क्रान्ति की...
सुमित्रानन्दन पन्त ने 'ग्राम्या' में, निराला ने 'नए पत्ते' में किसानों के हित की बातें कीं, अगली पीढ़ी ने आश्वस्त दृष्टि से क्रान्तिकारी शक्ति की ओर देखा। त्रिलोचन शास्त्री ने मुक्तिकामी जनता की गतिविधियों में अपनी धड़कन देखी--
अपनी मुक्ति कामना लेकर लड़ने वाली
जनता के पैरों की आवाजों में मेरा
हृदय धड़कता है...
केदारनाथ अग्रवाल के किसान के बेटे ने बाप की मृत्यु के बाद उत्तराधिकार में कुछ यूँ पाया कि‍--
बनिए के रुपयों का कर्जा
जो नहीं चुकाने पर चुकता
बस यही नहीं, जो भूख मिली
सौ गुनी बाप से अधिक मिली...।
गौरतलब है कि प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना से पूर्व भी यहाँ का बौद्धिक जगत पर्याप्त संवेदनशील था। प्रगतिवाद के पृष्ठभूमि-काल में ही रामविलास शर्मा ने अपनी कविता 'किसान कवि और उसका पुत्र' में बुलन्द घोषणा की--
यह मानव का हृदय क्षुद्र इस्पात नहीं है
भय से सिहर उठे वह तरु का पात नहीं है...
पूँजीपतियों के प्रति यह सीधी धमकी थी। श्रमशक्ति पर उनकी ऐसी अटूट आस्था थी, कि 'सत्यं शिवं सुन्दरम' कविता में आजादी की पूरी लड़ाई का श्रेय जीतने से पहले ही उन्होंने मजदूर किसान को दे दी --
हिन्दी हम चालीस करोड़
यह आजादी का मैदान
जीतेंगे मजदूर-किसान...
केदारनाथ अग्रवाल तो वसन्ती हवा की हरकतों में जनोल्लास देखने लगे। कविता से छन्द-विधान हट जाने के बावजूद वहाँ लोक-लय की मनोहारी संगीतात्मकता दर्ज हुई--
चढ़ी आम ऊपर
उसे भी झकोरा
किया कान में कू
उतरकर भगी मैं
हरी खेत पहुँची--
वहाँ गेहुँओं में
लहर खूब मारी
वसन्ती मौसम में प्राकृतिक उपादानों का ऐसा मानवीकरण; यथार्थ और कल्पना का ऐसा समन्वय प्रगतिवाद से पहले कभी सम्भव न था। केदारनाथ अग्रवाल ने तो फसलों का 'स्वयंवर' तक रचा दिया--
एक बीते के बराबर
यह हरा ठिगना चना
बाँधे मुरेठा शीश पर--
छोटे गुलाबी का, सजकर खड़ा है...
प्रकृति और ग्राम्य-जीवन पर अन्य धारा के कवियों की दृष्टि भी पड़ी है; प्रगतिवाद से पूर्व के भी, और पश्चात के भी; पर प्रगतिशील दृष्टि वाले कवियों की तरह इसे समूहवादी और मानवतावादी दृष्टि से देखने की उदारता औरों में नहीं।
प्रेम कविताओं में भी प्रगतिशील कवियों की जीवन-दृष्टि का वैराट्य स्पष्ट दिखता है। यही प्रेम उस दौर के कवियों के मन में मानव, समाज, राष्ट्र, विश्व के प्रति अनुरक्त और आसक्त करता होगा; सामाजिक यथार्थ से संवेदनापूर्वक जूझने, समूह की दुख-दुविधा, राग-विराग, चिन्तन-मनन, इच्छा-अनिच्छा, लास-अभिलाष को निजी जीवन पर उतारने की ललक इसी प्रेम से मिली होगी। तभी त्रिलोचन ने कहा --
मुझे जगत-जीवन का प्रेमी
बना रहा है प्यार तुम्हारा...
प्रगतिवादी कविता में भविष्य और जनशक्ति के प्रति आस्था इसी विराट प्रेम की परिणति है। अनिष्ट से लड़ना, वर्तमान को सुधारना और सुन्दर भविष्य के लिए उद्यमशील होना प्रगतिशील कविता और कवि की मूल-वृत्ति है। अतीत पर रोदन, वर्तमान का नकार और भविष्य के प्रति बेपरवाही इस धारा का दाय कभी नहीं रहा। नागार्जुन को 'आषाढ़स्य प्रथमे दिवसे' में प्रवास में रहकर मातृभूमि की याद आती है। किन्तु मातृभूमि के प्रति यह प्रेम उनके प्रवास को महत्त्वहीन नहीं करता, वह धरती उन्हें अनुदार, बेगानी और संवेदनविहीन नहीं लगती। उनकी यही उदारता उन्हें औरों से अलग करती है और उनकी सुलझी हुई समझ का सबूत पेश करती है। कवि को अपनी मातृभूमि मिथिला की याद आती है, मगर जिस दूर-देश में पड़े-पड़े वे मिथिला को यादकर विह्वल हो रहे हैं, वहाँ की मिट्टी और मानव के महत्त्व और व्यवहार को भूलकर नहीं। कवि कहते हैं --
यहाँ भी हैं व्यक्ति और समुदाय
किन्तु जीवन भर रहूँ फिर भी प्रवासी ही कहेंगे हाय!
मरूँगा तो चिता पर दो फूल देंगे डाल
समय चलता जाएगा निर्बाध अपनी चाल!
यह मानव जीवन का असल यथार्थ है। इस यथार्थ में कहीं कोई दुराव छिपाव नहीं है, प्रेम और उदारता का नाटक नहीं है। प्रगतिशील कविता की यही निश्छलता उसकी धारा को दीर्घकालीन बना सकी।
गौरतलब है कि स्वातन्‍त्र्योत्तर-काल की काव्‍यधारा में प्रगतिशील चेतना कायम रही। स्वाधीनता के बाद देखा गया कि‍ देश की राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक अवस्थिति और देश की शासन-व्यवस्था में कोई खास परिवर्तन नहीं हुआ। मुट्ठी भर लोग आजादी के जश्न में लिप्त रहे, और आम नागरिक बुनियादी सुविधाओं से वंचित रहा। प्रगतिशील चेतना के रचनाकारों की नजर से यह पाखण्ड बचा नहीं रहा। इस मोहभंग ने उन्हें वैचारिक रूप से उद्वेलित किया, उनके सृजन की दुनिया को नई ऊर्जा दी। 'चोर-चोर मैसेरे भाई' की नई शासन-व्यवस्था पर नागार्जुन ने प्रतिक्रिया दी--
अंग्रेजी-अमरीकी जोंकें, देशी जोंके एक हुईं
नेताओं की नीयत बदली, भारत माता की टेक हुई...
नागार्जुन की शैली तो प्रारम्भ से ही व्यंग्यात्मक थी; आजादी के बाद उनका व्यंग्य और आक्रामक हो गया। उन्होंने कहा--
सुनो, सुनोजी, थिरक उठे हैं, फिर से वही राग-दरबारी
वही सिपाही, वही मुलाजिम, वे अफसर वे ही अधिकारी
समय की पुकार और शोर-गुल के कारण इस धारा से जुड़े वे कवि धीरे-धीरे अपनी पुरानी जमीन पर वापस चले गए, जिनका मूल स्वर प्रगति-चेतना से मेल नहीं खाता था। मगर तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद नागार्जुन, मुक्तिबोध, केदारनाथ अग्रवाल, शमशेर बहादुर सिंह, त्रिलोचन शास्त्री को हर समय आम आदमी बड़ा दिखा। गजानन माधवमुक्तिबोध, जो आपादमस्तक प्रगति चेतना से भरे हैं, उनकी लेखनी निरन्तर हिन्दी कविता की प्रगतिशील धारा को ऊँचाई देती रही। प्रयोगवाद के नारे के साथ उनकी रचनाएँ तार सप्तक (1943) में संकलित अवश्‍य हुईं, मगर वे स्वयं कभी प्रयोगवाद के सीमित दायरे के चिन्तन में सिमटे नहीं। उनकी प्रमुख कृतियाँ हैंचाँद का मुँह टेढ़ा है (1964), अन्धेरे में आदि। कविता के अलावा उन्होंने कुछ कहानियाँ, डायरी और विपुल मात्रा में चिन्तनपरक लेखन भी कि‍या। छह खण्‍डों में लगभग तीन हजार पृष्ठों की उनकी रचनावली प्रकाशित है। हिन्दी साहित्य में सर्जनात्मक और आलोचनात्मक -- दोनों ही लेखन को उन्होंने शीर्ष पर पहुँचाया। उन्‍होंने देखा--
पूँजी से जुड़ा हुआ हृदय बदल नहीं सकता
स्वातन्त्र्य व्यक्ति का वादी
छल नहीं सकता मुक्ति के मन को
नागार्जुन ने देखा--
आँख निकल आई पढ़-पढ़ के नम्बर आए तीस
शिक्षा मन्त्री ने सिनेट में कहा अजी, शाबाश
सोना हो जाता हराम यदि ज्यादा होते पास
गिरिजा कुमार माथुर देखते हैं --
वह नहीं इंसान की है सभ्यता
स्वार्थ, लालच, युद्ध जिसके देवता
मूलधन हिंसा, गुलामी सूद है
आदमी बन्दूक की बारूद है...
यहाँ कवि को खुद उस इतर शक्ति पर क्रोध उठता है। इस बीच हिन्दी कविता में अनास्था के स्वर के कोलाहल, निरर्थकता-बोध की धूम से बाहर आकर कविता के प्रति आत्मविश्वास भी लौटा। रघुवीर सहाय ने कहा --
न टूटे न टूटे तिलिस्म सत्ता का मेरे अन्दर एक कायर
टूटेगा टूट
मेरे मन टूट मत झूठ-मूठ ऊब मत रूठ
इस आस्था का लौट आना, मन के भीतर बैठे कायर को टूटने की आज्ञा देना, उस समय की बड़ी घटना थी। कविता में कवि का यही आत्म-संकल्प हिन्दी कविता को प्रगतिशील जनवाद से और आगे फिर समकालीन कविता से जोड़ता है। नए जोश के साथ आए कई नवागन्तुक कवि धूमिल, लीलाधर जगूड़ी आदि की कविताओं में भी इस सूत्र की पड़ताल की जा सकती है।
नि‍ष्‍कर्ष
प्रगतिवाद के प्रारम्भिक काल से ही प्रगति‍शील कवि मनुष्‍य की इच्‍छा, अनि‍च्‍छा, प्रेम-अनुराग, दुख-दुविधा, सुख-सुविधा की समझ; राष्ट्रीय अस्‍मि‍ता के प्रति सजग दृष्टि; नीति मूल्य, जीवन-मूल्य, मानव-मूल्य, सम्‍बन्ध मूल्य की मौलिकता की समझ रखते आए हैं। जर्जर मान्यताओं, पद्धतियों का तिरस्कार; प्रगति और परिवर्तन के प्रति चेतना; समाज को मानवीय और नैतिक बने रहने की प्रेरणा से समृद्ध करते रहे हैं। लगातार कवि‍ता का क्षेत्र-विस्तार हुआ और कवियों की दृष्टि ग्राम्य-जीवन की ओर मुड़ी। वहाँ जाकर कवि की नजर किसी रहस्य और विस्मय-लोक में लिपट नहीं गई; वहाँ के यथार्थ को कवियों ने मार्मिकता से पकड़ा। सामन्ती प्रथा, शोषण, श्रमिकों और आम नागरिकों की बदहाली, किसानों की दुःस्थिति, कर्ज, भूख, अशिक्षा, अराजकता, पराधीनता...सब के विरोध में कवियों ने आवाज बुलन्द की। प्रगति‍शील काव्‍यधारा की कवि‍ताएँ पूरी तरह जन-संवेदना की कवि‍ताएँ हैं, जो पराभव-काल में जन-जन को सम्‍बल और संघर्ष-काल में उत्‍साह देती हैं।