मानव सभ्यता के इतिहास में अनुवाद
की उपस्थिति प्रारम्भिक काल से ही है। भाषाई भिन्नता के बाधक तत्त्वों की उपस्थिति
के बावजूद मनुष्य जाति अपनी धारणाओं की अभिव्यक्ति निरन्तर करती आ रही है, तो इसका श्रेय अनुवाद को ही जाता
है। तथ्य है कि अनुवाद के स्थूल उपयोग से निरन्तर सारे विधान पूरे होते रहे, पर इस क्रम में स्रोत-पाठ की
सामाजिक-सांस्कृतिक छवियाँ, जनपदीय
रहन-सहन, जीवन-यापन की
पारम्परिक पृष्ठभूमि, पाठ
की भाषिक संरचना, भाषिक
भूगोल, काल-पात्र के
स्थानीय स्वरूप, विचार-व्यवस्था
आदि जिस तरह लक्ष्य-पाठ में पहुँच जाती थी, और उस आदान-प्रदान से वहाँ के पाठक-मानस की भव्यता और
साहित्य-फलक की समृद्धि जिस तरह होती जा रही थी, उस तरफ ध्यान पहले नहीं दिया जा रहा था। इस दिशा में
सोचने-समझने और चिन्तनशील होने की प्रेरणा अनुवाद अध्ययन के कारण ही हुई। ध्यातव्य
है कि साहित्य-चिन्तन पर विचार करते हुए अनुवाद और अनुवाद अध्ययन को अलग-अलग देखना
होगा। इस क्रम में अनुवाद-कार्य से जुड़ी प्रमुख पारिभाषिक शब्दावली पर नजर दौड़ा
लेना मुनासिब होगा।
अनुवाद और
अनुवाद अध्ययन: उद्यम और अनुशीलन
अनुवाद अध्येताओं को प्राथमिक तौर
पर ही इस बात से सावधान रहना चाहिए कि अनुवाद और अनुवाद अध्ययन--दो अलग-अलग प्रसंग
हैं, इन्हें एक
समझने की भूल कभी नहीं करनी चाहिए। वैसे वर्तमान समय में अनुवाद को अंग्रेजी शब्द
ट्रान्सलेशन (Translation) का
समानार्थी समझा जाता है, अब
उलझन है कि अनुवाद शब्द का उपयोग सदियों पूर्व से ब्राह्मण-ग्रन्थों में, और फिर महान भारतीय ग्रन्थकार
यास्क मुनि (ई.पू. छठी सदी) एवं पाणिनी (ई.पू. पाँचवीं सदी) के यहाँ स्पष्टता से
मौजूद है, जब
ट्रान्सलेशन तो क्या, उसके
पूर्ववर्ती शब्द ट्रान्सलेटस और ट्रान्सलेटियो भी अस्तित्व में नहीं थे। भारत में
जब अनुवाद शब्द प्रयुक्ति में था,
तब
भाषा के रूप में लैटिन का वजूद ही नहीं था।
बहरहाल, अनुवाद का व्यावहारिक अर्थ और
आचरण, मूल रूप से
पूर्व-प्रदत्त कथन की अनुकृति है,
भाषा
कोई भी हो, पर
कही हुई बात को फिर से कहने की पद्धति को अनुवाद कहा गया है, जिसका उपयोग सम्प्रेषण के क्रम
में अनुकथन, अनुवचन, पुनर्कथन, भाष्य, टीका, अन्वय, विश्लेषण, व्याख्या, रूपान्तरण, आत्मसातीकरण होते हुए क्रमशः
भाषान्तरण तक आ पहुँचा, और
लोग ट्रान्सलेशन के लिए भाषान्तरण की जगह अनुवाद का उपयोग करने लगे।
यहाँ सबसे पहले हम उन पारिभाषिक
शब्दावलियों पर विचार कर लेते हैं। दी हुई परिस्थिति में हमें जिस पाठ का अनुवाद
करना होता है, उसे
स्रोत-पाठ या मूल-पाठ, और वह
जिस भाषा से अनुवाद होता है, उसे
स्रोत-भाषा या मूल-भाषा कहते हैं। ठीक इसी तरह जिस भाषा में प्रदत्त पाठ का अनुवाद
करना होता है, उसे
लक्ष्य-भाषा या लक्षित-भाषा, और
अनूदित पाठ को लक्ष्य-पाठ या लक्षित-पाठ कहते हैं। चूँकि हर भाषा की संरचना और
संस्कृति में उसके भौगोलिक परिवेश और जनपदीय जीवन-यापन की सूक्ष्मताएँ पिरोई रहती
हैं, इसलिए ये
तत्त्व पाठ के अस्तित्व में समाए रहते हैं, लिहाजा अनुवाद के समय स्रोत और लक्ष्य--दोनों ही भाषाओं के
सन्दर्भ में इन प्रसंगों पर सावधान रहने की आवश्यकता पड़ती है।
प्राचीन काल से चली आ रही भारतीय
अनुवाद पद्धति में अनुवाद के कई रूप सामने आए। प्राचीन गुरु-आश्रमों में गुरुओं
द्वारा कही गई बातों को शिष्यों द्वारा दुहराने की पद्धति को अनुवाद, अनुवचन, या अनुवाक् कहा जाता था। ‘वद्’ धातु में ‘घञ्’ प्रत्यय
लगने से बने शब्द ‘वाद’ का स्पष्ट अर्थ कथन या वचन होता
है, इसमें ‘अनु’ उपसर्ग लगाकर अनुवाद, अनुवचन, अनुकथन, अनुवाक् बनता है, और अर्थ होता है--अनुसरण करते हुए
कहना। अनुवाद का उपयोग ऋग्वेद (अनु...वदति) में दुहराने के लिए, अथवा अनुशरण करते हुए कहने के लिए
हुआ है। ब्राह्मण ग्रन्थों (यद् वाचि प्रोदितायाम् अनुब्रूयाद्
अन्यस्यैवैनम्/उदितानुवादिनम् कुर्यात्: ऐतरेय ब्राह्मण, 3.15) में दुबारा
कहने या पुनः कहने के अर्थ में ‘अनुवाद’ का उपयोग कई स्थानों पर हुआ है।
वृहदारण्यक उपनिषद(तद् एतद् एवैषा देवी वाग् अनुवदति, 5.2.3) में दुबारा
कहने अर्थात् दुहराने के लिए इसका उपयोग हुआ है। निरुक्त में यास्क ने इसे
(कालानुवादं परीत्य, 12.13) ‘ज्ञात
को कहना’ माना है।
निरुक्त में ही दूसरी जगह (यथा एतद् ब्रह्मणेन रूपसम्पन्ना विधीयन्त
इत्युदितानुवादः स भवति, 1.16) इसका
प्रयोग ‘दुहराने’ के अर्थ में हुआ है। पाणिनि के सूत्र
(अनुवादे चरणानाम्/अष्टाध्यायी/2.4.3)
में
भट्टोजि दीक्षित एवं वासुदेव दीक्षित जैसे भाष्यकार ‘अनुवाद’ का अर्थ ‘ज्ञात को कहना’ लगाते हैं। भर्तृहरि ने भी इसे
(आवृत्तिरनुवादो वा, 2.1.15) दुहराना
या पुनर्कथन ही कहा है। जैमिनीय न्यायमाला में इसे ज्ञात का कथन माना गया है
(ज्ञातस्य कथमनुवादः, 1.4.6)।
न्यायसूत्र (2.1.62) में ‘अनुवाद’ को वाक्य का एक प्रकार (विध्यर्थवादानुवादवचनविनियोगात्/2.1.62) माना गया है; और कहा गया है कि विधिविहित का
पुनर्कथन (विधिविहितस्यानुवचनमनुवादः/2.1.65) अनुवाद है। न्यायदर्शन में कहा गया कि चूँकि अनुवाद और
पुनरुक्ति--दोनो में शब्दों की अवृत्ति होती है; इसलिए दोनो में कोई भेद नहीं है (नानुवादपुनरुक्तयोर्विशेषः
शब्दाभ्यासोयपन्ने/2.1.66)।
इसके विपरीत न्यायसूत्र के वात्स्यायनभाष्य(2.1.67) के अनुसार पुनरुक्ति निरर्थक होती है, जबकि अनुवाद सार्थक और
प्रयोजनपूर्ण; इस
लिए ‘अनुवाद’ पुनरुक्ति नहीं हो सकता। सचाई है
कि अनुवाद सार्थक और प्रयोजनपूर्ण होता है; पर यह भी सचाई है कि भाषा अथवा प्रतीक-व्यवस्था भले बदल जाए, पर सही अर्थों में ‘अनुवाद’ में होती तो पुनरुक्ति ही है; अर्थात् किसी एक भाषा अथवा
प्रतीक-व्यवस्था में व्यक्त सन्देश,
दूसरी
भाषा अथवा प्रतीक-व्यवस्था में पुनव्र्यक्त होता है। इसी अर्थ में अनुवाद
पुनरुक्ति लगता है। साहित्य में पुनरुक्ति बेशक एक दोष हो, निरर्थक हो, पर अनुवाद में इस पुनरुक्ति की
गरिमा बदल जाती है। भाष्यकारों का परम-चरम उद्देश्य वस्तुतः पाठ की जटिलता दूर
करना, और वृहत
ग्राही समुदाय तक सरल भाषा में मूल सन्देश पहुँचाना होता है। व्यक्त पाठ की गूढ़ता
तोड़ने के क्रम उन्हें कई विधानों का सहारा लेना होता है। पाठ-विश्लेषण, अन्वय, अर्थान्वेष आदि क्रिया से गुजरते
हुए उनके लिए पाठ की पुनराभिव्यक्ति अनिवार्य और पुनीत हो जाती है। इसलिए भाष्य
अथवा अनुवाद उद्यम की पुनरुक्ति को पुनरुक्ति-दोष या निरर्थक आयास नहीं माना जा
सकता।
विदित है कि प्राचीन आचार्य अक्सर
अपने आर्ष-वचन सूत्रात्मक पद्धति में कहा करते थे, उनकी सूत्रात्मक गाँठें खोलकर अर्थ स्पष्ट करना भाष्य कहलाता
है। भाष्य का शाब्दिक अर्थ होता है--‘व्याख्या के योग्य।’ संस्कृत साहित्य की परम्परा में दूसरे ग्रन्थों के अर्थ की
वृहद व्याख्या या टीका-ग्रन्थों को भाष्य कहते हैं। भाष्य मुख्यतः प्राचीन सूत्र-ग्रन्थों
के ही लिखे गए हैं।
सूत्रार्थो
वर्ण्यते यत्र, पदैः
सूत्रानुसारिभिः।
स्वपदानि
च वर्ण्न्ते, भाष्यं
भाष्यविदो विदुः।।
प्राचीन ऋषि-मुनि वस्तुतः भाष्य
रचने के काम को धार्मिक भाव से देखते थे। वे इस कर्म को मोक्ष-प्राप्ति का साधन
मानते थे। मोक्ष हेतु अविद्या का नाश आवश्यक था, और भाष्य रच कर अविद्या का नाश किया जा सकता था। उनकी इस धारणा
का कारण सम्भवतः यह भी रहा हो कि ऐसा करने से उनका ज्ञान-बोध तो विस्तार पाता ही
था, साथ-साथ
उपयोगी सूत्र-ग्रन्थों की उपलब्धता जनसामान्य को भी हो जाती थी। इस रास्ते वे एक
परोपकार के भी भागी हो जाते थे। अतीत काल के अनेक भाष्यकार आज हमारे समाज में
श्रद्धा से पूजे जाते हैं। पाणिनि के अष्टाध्यायी पर पतंजलि का व्याकरणमहाभाष्य और
ब्रह्मसूत्रों पर शांकरभाष्य आदि कुछ प्रसिद्ध भाष्य हैं।
पराशरपुराण में भाष्यकार के पाँच
कार्य गिनाए गए हैं--
पदच्छेदः
पदार्थोक्तिः विग्रहो वाक्ययोजना।
आक्षेपेषु
समाधानं व्याख्यानं पंचलक्षणम् ।।
अर्थात्, पद-विच्छेद, पदों में व्यक्त उक्तियों के
अर्थ-निरूपण, सामासिक
सन्दर्भों के विग्रह, वाक्य-योजना
की समझ, आरोपित
विकारों के समाधान आदि पाँच उद्यमों द्वारा व्याख्या, अर्थात् भाष्य किया जाता है। मूल
ग्रन्थों की टीका को प्राथमिक भाष्य कहते हैं। फिर उन भाष्यों के भाष्य को
द्वितीयक भाष्य, तृतीयक
भाष्य आदि कहते हैं। किसी ग्रन्थ का भाष्य लिखना बड़ा ही जटिल, श्रमसाध्य और विद्वत्तापूर्ण
कार्य माना जाता है। संक्षिप्त टीकाओं को वाक्य या वृत्ति कहते हैं। भाष्यों का
अर्थ स्पष्ट करने हेतु लिखी गई टीकाएँ वार्तिक कहलाती हैं।
कुछ चर्चित भाष्य एवं भाष्यकारों
की सूची इस प्रकार है--
सायण, मैक्समूलर, स्वामी दयानन्द सरस्वती एवं
महर्षि अरबिन्द द्वारा रचित वेदों के भाष्य, निघण्टु के भाष्य (यास्क), पाणिनि के अष्टाध्यायी का पतंजलि द्वारा रचित भाष्य
व्याकरणमहाभाष्य, शंकराचार्य
एवं रामानुज द्वारा रचित महर्षि बादरायण कृत ब्रह्मसूत्र का भाष्य, न्यायभाष्य पर उद्योतकर की टीका
न्यायवार्तिक, फिर
न्यायवार्तिक पर वाचस्पति मिश्र की टीका (न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका), ग्यारह उपनिषदों (ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, माण्डूक्य, तैत्तिरीय, ऐतरेय, छान्दोग्य, बृहदारण्यक और श्वेताश्वतर), गीता एवं वेदान्त पर शंकराचार्य
का भाष्य, वैशेषिक के
अलावा शेष पाँचो (मीमांसा, न्याय, सांख्य, योग, वेदान्त) दर्शनों पर वाचस्पति
मिश्र का भाष्य (तत्त्ववैशारदी, योगवार्तिक, भोजवृत्ति, सांख्यतत्त्वकौमुदी, न्यायसूत्री), योगसूत्र का व्यास भाष्य, न्यायदर्शन का वात्स्यायनकृत
न्यायभाष्य, मीमांसा
का शाबरभाष्य, शाबरभाष्य
पर कुमारिल भट्ट के वृत्तिग्रन्थ-- श्लोकवार्तिक, तन्त्रवार्तिक;
वाचस्पति
मिश्र कृत न्यायकणिका तथा तत्त्वविन्दु; शंकरभाष्य एवं मण्डन मिश्र की ब्रह्मसिद्धि पर वाचस्पति मिश्र
की टीका--भामती एवं ब्रह्मतत्त्वसमीक्षा।
कठिन और अप्रचलित शब्दों के
प्रयोग के कारण कथन में उपस्थित अर्थ की अस्पष्टता मिटाकर सहज शब्दों में पाठ की
व्याख्या टीका कहलाती है। बोलचाल की भाषा में की गई व्याख्या को इसी अर्थ में
भाषा-टीका कहा जाता है। भारतीय वांग्मय में अनुवाद की यह पद्धति अत्यन्त प्राचीन
है। लगभग सभी भारतीय भाषाओं में भाष्य और टीका यथेष्ट रूप से विकसित है। निकट अतीत
तक भाष्य लिखने की परम्परा मौजूद रही है। भारत के अकेले एक ग्रन्थ गीता पर जितने
भाष्य लिखे गए, शायद
ही संसार की किसी भाषा की किसी कृति पर इतने भाष्य लिखे गए हों। बाल गंगााधर तिलक
और आचार्य बिनोवा भावे रचित गीता भाष्य की ख्याति से पूरा जगत परिचित है। इस भाष्य
और टीका में कई बार शब्दों और पदों का व्याकरणिक अन्वय भी किया जाता है, अर्थात व्याकरणिक नियमों के आश्रय
से उसके सन्धि विच्छेद, समास-विग्रह, धातु-प्रत्यय-विश्लेषण, उपसर्ग-योग आदि के उपयोग से कथन
के मूल अर्थ तक सहजतापूर्वक पहुँचने की पद्धति को अन्वय कहते हैं।
सृजनात्मक कौशल से अलंकृत भाषा
में कही गई बातों में अक्सर गूढ़ार्थ उपस्थित हो जाते हैं। भावों, विचारों की श्रेष्ठतर और प्रभावी
अभिव्यक्ति के लिए गुणी-जन कई बार प्रतीक-व्यवस्था का प्रयोग करते हैं, भाषा में यह प्रतीक शब्दों से
बनता है; चित्रों में
रंगों से; मूर्ति में
भंगिमाओं और आकारों से; रंगकर्म
में दृश्यादर्श, भंगिमा, एवं संवाद से...विधागत
परिस्थितियों के अनुकूल प्रतीक-संरचना बदलती रहती है। इन प्रतीकों से उत्पन्न
ध्वन्यार्थों के कारण कथन में कई बार बहुपरतीय अर्थ भर जाते हैं। जैसे छायावाद के
समय में खग, नभ, पर्वत, समुद्र जैसे स्वच्छन्द प्रतीकों, या नई कविता के दौरान भेड़िया, अन्धकार, सड़ान्ध, सुरंग जैसे त्रासद और घुटन भरे
प्रतीकों का प्रयोग हुआ, और
पाठ में बहुपरतीय अर्थवत्ता समा गई। ऐसे में किसी कथन का अर्थबोध जब सहजता से हो, तो वह सरलार्थ कहलाता है; और प्रतीक, अलंकार, या अन्य सृजनात्मक कौशल के कारण
छिपे हुए विशेष अर्थ विशेषार्थ कहलाते हैं। किसी पाठ के शब्दानुवाद, भावानुवाद में इस सरलार्थ, विशेषार्थ की बड़ी जरूरत होती है।
स्रोत-पाठ से लक्ष्य-पाठ में जाते हुए अनुवादक जब शब्दों, वाक्यों के कोशीय समानार्थी
ढूँढते हैं, तो वह
शब्दानुवाद कहलाता है। पर यह अनुवाद बेहतर नहीं माना जाता, क्योंकि भाषा की प्रयुक्तिगत
विशिष्टता के कारण, ऐसे
अनुवाद में अधिकतर अनर्थकारी अनुवाद की गुंजाइश बनी रहती है। लोकजीवन की
प्रयुक्तियों, मुहावरे, सांस्कृतिक दृष्टिकोण आदि के कारण
एक भाषा की प्रयुक्तिगत विलक्षणता कोश के सहारे स्पष्ट नहीं होती, उसे अनुवादक अपने
भाषा-समाज-संस्कृति सम्बन्धी बोध और पाठ के प्रसंग से ही स्पष्ट करता है। वर्ना ‘एट अलेवन्थ आवर’ (अन्तिम क्षण में) का अनुवाद कोशीय
अर्थ से ‘ग्यारहवें
घण्टे में’ कर
दिया जाएगा। इसलिए बेहतरीन अनुवाद वह होता है, जिसमें अनुवादक स्रोत-भाषा के पूरे पाठ के प्राण-तत्त्व को
अक्षत रखते हुए, उसके
भाषिक भूगोल, लौकिक
संस्कार, और सांस्कृतिक
सन्दर्भ के साथ लक्ष्य-भाषा में पहुँचाए। इस तरह भावमूलक अनूदित पाठ को भावानुवाद
कहते हैं। भावानुवाद में मूल-पाठ के हर शब्द का कोशीय समानार्थक शब्द नहीं ढूँढे
जाते।
यहाँ उच्चारण से ही स्पष्ट है कि
भावानुवाद में पाठ के भाव पर बल दिया जाता है। भाव को लक्ष्य करते हुए अनुवादक आगे
बढ़ते हैं। ऐसे अनुवाद अक्सर साहित्य में होते हैं। उपलब्ध पाठ के भाव-ग्रहण में
अनुवादक के भाषा-ज्ञान और अनुवाद-कौशल के अलावा उस पाठ के
सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक सन्दर्भ की बड़ी भूमिका होती है। इसमें मूल-पाठ का
सार-संक्षेप अनूदित पाठ में व्यक्त होता है। इसे भावानुवाद के साथ-साथ सारानुवाद
भी कहते हैं। भावानुवाद या सारानुवाद में मूल-पाठ के कई विवरण छोड़ दिए जाते हैं, पर मूल कथन मौजूद रहता है। शब्दों, पदों, मुहावरों, उक्तियों के विशेष सन्दर्भ को
उजागर करने में अनुवादक अपने विलक्षण कौशल का इस्तेमाल करता है। जब हम कहते हैं--‘वह वंशीधर को सारी जमीन बेचकर
गंगा नहा आया’ तो
यहाँ ‘गंगा नहा आना’ इस पूरी पंक्ति को मूल्य-बोधित
(वैल्यू लोडेड) कर देता है। भारतीय सन्दर्भ में ‘गंगा नहाने’ का
अर्थ गंगा नाम की किसी नदी में नहाना नहीं है; इसका अर्थ समस्त पाप हरने वाली देव-नदी गंगा में नहाकर सारे
पापों से मुक्ति पाना है। पर इस जमीन के बिक जाने से उसे किस पाप से मुक्ति मिली?... यहीं इस वाक्य का सन्दर्भ उस
व्यक्ति के जीवन-फलक, और
जमीन से सम्बद्ध सारे सन्दर्भों से जुड़ जाता है। सम्भव है कि वह जमीन बंजर हो, या बेहद विवादास्पद हो, या उस जमीन के कारण उसे जीवन के
ढेरो झंझावातों का सामना करना पड़ रहा हो, या कि वह नौकरीशुदा हो, परदेश में रहता हो, और जमीन की तुलना में अपनी नौकरी से उसे अधिक मोह हो, ...असंख्य सम्भावनाएँ हैं, जो पाप तो नहीं, पर पाप जैसी ही दुःखदायिनी हैं।
इसलिए एक बेहतर अनुवादक इस पंक्ति
के अनुवाद में अपनी विलक्षण मनीषा के भरपूर उपयोग से भाव-ग्रहण करेगा, जो उस पाठ और नायक के पूरे
सन्दर्भ से सामने आएगा। विदित है कि भाषा-व्यवहार में शब्दों की अर्थ-ध्वनियाँ
उसके प्रयोग से स्पष्ट होती है। उदाहरण के तौर पर ‘गंगा’ किसी
व्यक्ति, परियोजना, महल, प्रसंग, नदी का नाम हो सकता है; और किसी कार्य, सम्बन्ध, व्यापार आदि से मिले बुद्धि, बल, वैभव, यश, प्रतिष्ठा, ख्याति, सुख, सौरभ आदि मुनाफे को ‘लाभ’ कहते हैं। पर इन दोनो को मिला दें, तो ‘गंगालाभ’ होता है; जिसका अर्थ पूरी तरह अलग है। इसका
स्पष्ट अर्थ है, किसी
व्यक्ति की मृत्यु/अन्त्येष्टि के बाद उसके अस्थि-कलश को गंगा की धारा में
प्रवाहित करना। इसी प्रकार ‘महा’ एक उपसर्ग है, जो किसी शब्द के आरम्भ में लगकर
उसकी महत्ता सूचित करता है--महाव्रत; महातीर्थ...आदि;
पर
यही उपसर्ग ‘यात्रा’ में लग जाए, तो ‘महायात्रा’ शब्द बनता है, जिसका अर्थ ‘मृत्यु’ है। अर्थ-ध्वनि की इसी सूक्ष्मता
के कारण किसी अच्छे अनुवादक के लिए स्रोत-भाषा और लक्ष्य-भाषा के पूरे भाषिक-फलक, सांस्कृतिक-सन्दर्भ, और सामाजिक-पद्धतियों का गम्भीर
ज्ञान आवश्यक माना गया है। भाषा एवं संस्कृति की सूक्ष्मताओं को जानकर ही कोई
अनुवादक इन अर्थध्वनियों का मर्म पकड़ पाएगा। स्रोत एवं लक्ष्य भाषाओं के व्याकरणिक
और कोशीय ज्ञान मात्र से अनुवाद की इस जटिल पद्धति में कूद जाना अनुचित है; दोनो भाषाओं के सांस्कृतिक संकेत
और जनपदीय मान्यताओं के अनुसार अर्थग्रहण की प्रक्रियाओं का ज्ञान अनिवार्य है।
स्रोत-पाठ के प्राण-तत्त्व को अक्षत रखते हुए लक्षित-पाठ के भाषिक भूगोल, लौकिक संस्कार और सांस्कृतिक
सन्दर्भ के साथ भाषान्तरण ही बेहतर अनुवाद हो सकता है।
अनुवाद की एक और कोटि
है--आशु-अनुवाद, अर्थात्, तत्क्षण अनुवाद। इस विधि का उपयोग
अक्सर मौखिक होता है--पर्यटकों के लिए, या किसी विदेशी यात्री, सन्त, प्रवक्ता
आदि के लिए दुभाषिए का इन्तजाम रहता है, जो दो भाषिक-व्यवस्था के लोगों के बीच संवाद का सेतु बनाता है, अर्थात्, वाचक की भाषा में वाचक की बात
सुनकर ग्राही के समक्ष वाचक के भावों को ग्राही की भाषा में सही-सही अभिव्यक्त
करता है। अंग्रेजी में इस वृत्ति को इण्टरप्रिटेशन कहते हैं, हिन्दी में इसके लिए आशु-अनुवाद, भाष्य और निर्वचन शब्द चलन में
है। कुछ लोग इस क्रिया को इधर भाषान्तर भी कहते हैं। संसदीय बहसों और राजनयिक
सन्दर्भों में आशु-अनुवाद या निर्वचन बड़ा ही संवेदनशील होता है, अर्थबोध की जरा-सी चूक भी किसी
बड़े अनिष्ट को बुलावा दे सकती है,
इसलिए
यह बड़ा ही जोखिम भरा काम होता है। इस जोखिम का प्रमुख कारण होता है कि इसमें
पुनर्प्रयास की गुंजाइश नहीं होती,
नाटक
के अभिनेताओं की तरह।
आत्मसातीकरण (एप्रोप्रिएशन)
अनुवाद की एक बुलन्द धारणा है, जो
भारत में सदा से उपलब्ध रही है। यही वह पद्धति है, जो अनुवादक को शब्दानुवाद से बचने की प्रेरणा देती है, और अनुवादक स्रोत-भाषा के पाठ को
लोकोपयोगी बनाकर लक्ष्य-भाषा में पेश करता है। प्राचीन रोम के प्रसिद्ध
अनुवाद-चिन्तक मार्कुस तूलिउस सिसेरो (ई.पू. 106 से ई.पू. 43)
एवं
होरेशियस (ई.पू. 65 से
ई.पू. 8) भी शाब्दिक
अनुवाद को भाषा की दरिद्रता और अनुवादक की अक्षमता समझते थे। उनकी राय में
लक्ष्य-भाषा के नियमों पर चलना, और
पाठकों की अपेक्षाओं का ध्यान रखना एक अनुवादक की सबसे बड़ी निष्ठा थी। भारत के
प्राचीन अनुवाद उद्यमों में तो यह है ही, हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओं का लगभग मध्ययुगीन साहित्य
ऐतिहासिक-पौराणिक ग्रन्थों के ऐसे आत्मसातीकरण का बेहतरीन नमूना है। रामकथा और
कृष्णकथा की असंख्य छवियाँ प्रस्तुत करते हुए मध्यकालीन भारतीय रचनाकारों ने अपनी
उसी विलक्षण रचनात्मकता और अनुरागमय समाजबोध का परिचय दिया है।
वस्तु और विचार के विनिमय हेतु
अनुवाद की आवश्यकता मानव सभ्यता के शुरुआती दौर में ही पड़ी, जो बाद में मत, पन्थ के प्रचार-प्रसार, राज-काज के संचालन, और फिर बहुत बाद में आकर राजनीतिक
सम्बन्धों की समझ के लिए महत्त्वपूर्ण घटक साबित हुआ। द्वितीय विश्वयुद्ध की
समाप्ति के बाद अन्तर्राष्ट्रीय सम्प्रेषण हेतु अनुवाद एक अनिवार्य घटक बन गया, यूँ ज्ञान-विज्ञान के प्रसार के
महत्त्वपूर्ण साधन के रूप में अन्तर्राष्ट्रीय सम्प्रेषण हेतु इसके उपयोग की सूचना
पंचतन्त्र के पहलवी, अरबी, और फारसी अनुवाद में, और फिर मुगल-शासन काल के विभिन्न
अनुवादों में देखी जा सकती है। ब्रिटिश उपनिवेशीय पद्धति में शासकीय तिकड़म के अचूक
हथियार की तरह इसका दुरुपयोग किया गया, जबकि स्वातन्त्रयोत्तर काल के विश्वग्राम की अवधारणा में इसकी
भूमिका शिक्षा, राजनीति, धर्म, समाज, व्यापार, पर्यटन, पत्रकारिता, शासन...हर कुछ के लिए अनिवार्य हो
गई। ज्ञान-विज्ञान की आधुनिक शैक्षिक शाखा अनुवाद अध्ययन में अनुवाद उद्यम का
मूल्यांकन और अनुशीलन करते हुए इन सारे प्रसंगों पर विचार किया जाता है--अनुवाद के
इतिहास, परम्परा, प्रयोजन, प्रत्यक्ष-परोक्ष उद्देश्य, परिणति आदि पर विचार करने की
जरूरत पुराने समय के बुद्धिजीवियों को शायद नहीं हुई हो, पर अब स्पष्ट दिखने लगा है, बल्कि उन्नीसवीं शताब्दी के कुछ
आरम्भिक दशकों से ही दिखने लगा था कि अनुवाद केवल एक भाषिक व्यवस्था में उपलब्ध
पाठ का दूसरी भाषिक व्यवस्था में कायान्तरण भर नहीं है, मूल-पाठ की भौगोलिक, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, भाषिक सीमाबन्ध तोड़कर यह धर्म, धारणा, विचार, विधान के व्यापक सम्प्रेषण का
अचूक माध्यम भी है। मुगल शासन के अन्त काल तक ज्ञान, साहित्य, सन्देश
के व्यापक प्रसार और राजकाज संचालन में अनुवाद का सहयोग लिया जाता रहा, पर ब्रिटिश वर्चस्व के उदय से
अनुवाद के कई फलक खुल गए। अनुवाद की मंशा बदल गई, शासकीय हस्तक्षेप के कारण अनुवाद की धारणा दूषित हो उठी। पाठ
की विश्वसनीयता, समतुल्यता
सन्दिग्ध होने लगी। अनुवाद कौशल और अनुवादक का राष्ट्रबोध पुनर्वास की स्थिति में
आ गया। सुखद है कि इस दुर्नीति से आहत समकालीन बुद्धिजीवियों की अनुवाद-चेतना
वैश्विक फलक पर जाग्रत और सावधान हुई। बुद्धिजीवियों को राष्ट्र, भाषा, साहित्य और संस्कृति की मर्यादा
के प्रति शासकीय विधान अविश्वसनीय लगने लगा। इस अविश्वसनीय आचरण से चौकस हुए
बौद्धिक वातावरण में वैश्विक फलक पर अनुवाद कार्य में तो तेजी आई ही, अनुवाद के बहुविध परिणामों की परख
भी होने लगी। अनुवाद कार्य में अनुवाद की धारणा, प्रायोजक की मंशा, सांस्कृतिक संचरण की पद्धति, ज्ञान-विज्ञान एवं विचार के प्रचार-प्रसार का आधार, ऐतिहासिक-पारम्परिक धरोहर की खोज, अन्तर्राष्ट्रीय सांस्कृतिकता के
पारस्परिक साम्य-वैषम्य, विश्व-साहित्य
की अवधारणा, तुलनात्मक
साहित्य के सूत्र, अन्तर्राष्ट्रीय
सम्बन्ध-सूत्र, ग्राही
साहित्य एवं समाज की सम्पन्नता और स्रोत-पाठ की सुदूर पहुँच...आदि विवेचनीय हो
उठे। अनुवाद अध्ययन इन सभी विन्दुओं पर सुसंगत और तार्किक विश्लेषण का शैक्षिक
अनुशासन है। इसकी अनिवार्यता तो बहुत पहले ही आन पड़ी थी, पर इसका उदय बिलम्ब से हुआ।
अनुवाद
अध्ययन: प्रारम्भ और परिणति
अनुवाद अध्ययन की शुरुआत बेशक
हाल-फिलहाल की घटना है, पर इसके
आदि-सूत्र बड़े पुराने हैं। अपनी पद्धति और दृष्टिकोण में यह एक अन्तरानुशासनिक
शैक्षिक अध्ययन है, जिसमें
अनुवाद एवं अनुवचन के इतिहास, परम्परा, पद्धति, प्रकार, सिद्धान्त, विश्लेषण, अनुशीलन, अनुप्रयोग एवं स्थानीकरण पर
व्यवस्थित ढंग से विचार किया जाता है। इस प्रक्रिया में यह तुलनात्मक साहित्य, इतिहास, समाजशास्त्र, भाषाविज्ञान, संकेत विज्ञान, दर्शन-शास्त्र, कम्प्यूटर विज्ञान... जैसे
विभिन्न शैक्षिक क्षेत्रों को अपनी परिधि में शामिल कर लेता है।
अनुवाद अध्ययन की परम्परा ढूँढते
हुए इसके इतिहासकार पश्चिमी अनुवाद की प्रारम्भिक विचार-शृंखला के पुनरावलोकन में
बहुधा सिसेरो (ई.पू. 106 से
ई.पू. 43) के उद्धरण पर, या सन्त जेरोम (सन् 347-420) की धारणाओं पर
आकर अटक जाते हैं। ग्रीक इतिहासकार हेरोडोटस (ई.पू. 484- ई.पू. 425) ने भी मिस्र में दुभाषियों के
विवरणात्मक इतिहास में अनुवाद अध्ययन या अनुवाद प्रक्रिया के बारे में कुछ
उल्लेखनीय नहीं कहा है।
ज्ञात सूत्रों के अनुसार प्रसिद्ध
अमेरिकी विचारक, कवि, अनुवादक जेम्स होल्म्स (सन् 1924-1986) की गणना
अनुवाद चिन्तन के प्रारम्भिक चरण के चिन्तकों में होती है। उन्होंने ही शुरुआती
दौर में वैज्ञानिक पद्धति से अनुवाद अध्ययन की रूपरेखा तैयार की और इसे लोकप्रिय
बनाने का प्रथम प्रयास किया। सन् 1972 में
प्रकाशित अपने बहुचर्चित निबन्ध द नेम एण्ड नेचर ऑफ ट्रान्सलेशन स्टडीज में
उन्होंने अनुवाद अध्ययन के नए-नए आयामों को रेखांकित कर अनुवाद की तीन महत्त्वपूर्ण
शाखाएँ बनाईं--वर्णनात्मक शाखा, जहाँ
अनुवाद का वर्णन होता है, सैद्धान्तिक
शाखा, जहाँ अनुवाद
सिद्धान्त की व्याख्या होती है, ताकि
अनुवाद प्रक्रिया की जानकारी मिले,
और
अनुप्रयुक्त शाखा, जिसमें
उक्त दोनों शाखाओं से प्राप्त जानकारी का व्यावहारिक प्रयोग हो। होल्म्स की
अवधारणाएँ अनुवाद सिद्धान्तों के विकास में मदद देती हैं, वह अनुवाद प्रक्रिया और लक्ष्य
भाषा में अनूदित पाठ के भावबोध पर अधिक केन्द्रित है।
प्रसिद्ध अमेरिकी विद्वान एडविन
जेण्टलर (सन् 1951) का
अनुवाद तकनीक, अनुवाद
अध्ययन, अनुवाद और
उत्तर-उपनिवेशीय सिद्धान्त, एवं
तुलनात्मक साहित्य के क्षेत्र में विशिष्ट काम है। वे अमेरिकी अनुवाद एवं निर्वचन
अध्ययन संघ की कार्यकारी समिति के एक सदस्य भी हैं। समकालीन अनुवाद सिद्धान्तों पर
काम करते हुए उन्होंने अनुवाद कार्यशाला, अनुवाद विज्ञान,
बहुपद्धतीय
अनुवाद सिद्धान्त, विरचना
(Deconstruction) जैसे अनुवाद
अध्ययन के आधुनिक दृष्टिकोणों पर गम्भीरता से विचार किया। उल्लेखनीय है कि सन् 1960 के दशक के मध्य में शुरू होकर ये
सारी पद्धतियाँ अनुवाद अध्ययन के क्षेत्र में अत्यधिक प्रभावशाली हो उठीं। इस क्रम
में उन्होंने इन पद्धतियों की खूबी-खामियों पर विचार करने के साथ-साथ विभिन्न
वैचारिक स्कूलों के दृष्टिकोणों के पारस्परिक अनुबन्धों पर भी विचार किया।
संस्कृति अध्ययन की वर्तमान बहस के सन्दर्भ में उन्होंने प्रमुख अनुवाद
सिद्धान्तों की मान्यताओं पर भी सवाल उठाया।
उनके अनुसार हर भाषा की अपनी
साहित्यिक परम्परा होती है, उसके
संरचनात्मक सन्दर्भ होते हैं, और
अपने इस वैशिष्ट्य के लिए हर पाठ का अपना स्थानिक महत्त्व होता है। जाहिर है कि
स्रोत-पाठ और अनूदित-पाठ का गहन सरोकार उनकी अपनी-अपनी साहित्यिक परम्परा और
संरचनात्मक सन्दर्भ से होगा। पर दोनों पाठ को सामने रख कर हम विचार करेंगे तो
स्पष्ट दिखेगा कि स्रोत-भाषा की साहित्यिक परम्परा और संरचनात्मक सन्दर्भ में
स्रोत-पाठ और अनूदित-पाठ का आपसी सरोकार वैसा नहीं होगा, जैसा ग्राही-भाषा की संस्कृति के
संरचनात्मक सन्दर्भ में। जेण्टलर ने अपनी तुलनात्मक पद्धति में इस बिन्दु पर
गम्भीरता से विचार किया है।
सन् 1958 में मास्को में स्लाविस्त्स (Slavists) का दूसरा कांग्रेस आयोजित हुआ, उसमें अनुवाद के भाषाई और
साहित्यिक दृष्टिकोण पर विचार-विमर्श का प्रस्ताव आया। भाषावैज्ञानिक और साहित्यिक
मान्यताओं की दृढ़ता से मुक्त होकर अनुवाद के सभी पक्षों के अध्ययन हेतु एक अलग
विज्ञान की शुरुआत पर बल दिया गया। कुछ अमेरिकी विश्वविद्यालयों में सन् 1960 में तुलनात्मक साहित्य के अध्ययन
के दौरान अनुवाद कार्यशालाओं को प्रोत्साहित किया गया। इसके बाद व्यवस्थित रूप से
अनुवाद का भाषाविज्ञानाभिमुख अध्ययन भी शुरू हुआ। क्युबेक में सन् 1958 में, फ्रैंच और अंग्रेजी की वैषम्यमुखी
तुलना होने लगी। सन् 1964 में, चाॅम्स्की के जेनरेटिव ग्रामर से
प्रभावित यूगीन नायडा ने टुवार्ड्स ए साइन्स ऑफ ट्रान्सलेटिंग शीर्षक से एक
अनुवाद-निर्देशिका प्रकाशित करवाई। सन् 1965 में, जॉन
सी कैटफोर्ड ने भाषावैज्ञानिक दृष्टिकोण से अनुवाद सिद्धान्त प्रतिपादित किया। सन्
1960-1970 के दशक में, चेक और स्लोवाक में साहित्यिक
अनुवाद की शैली पर काम शुरू हो गया। अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान पर सन् 1972 में कोपेनहेगन में आयोजित तृतीय
अन्तर्राष्ट्रीय कांग्रेस में प्रस्तुत अपने पर्चे द नेम एण्ड नेचर ऑफ ट्रान्सलेशन
स्टडीज में जेम्स एस होल्म्स ने साहित्यिक अनुवाद सम्बन्धी इन प्रारम्भिक
अनुसन्धानपरक पहल का संज्ञान लिया है।
अनुवाद अध्ययन पर विचार करते हुए
निकटवर्ती शैक्षिक अनुशासनों से उसके सरोकारों की जानकारी अनिवार्य हो जाती है। पर
यह काम द्वन्द्व के बिना असम्भव है। तथ्य है कि पारम्परिक रूप से अनुवाद की शिक्षा
हर जगह भाषा और साहित्य के विभागों में ही शुरू हुई, अपने उद्गम पर ही स्वतन्त्र अस्तित्व कायम करना अनुवाद अध्ययन
एवं प्रशिक्षण के लिए आसान तो होता नहीं, द्वन्द्व तो अपरिहार्य था; पर इस सांस्थानिक अपरिहार्यता के बावजूद अनुवाद अध्ययन की
वैज्ञानिक वैधता भी आवश्यक थी। सम्भवतः यही कारण हो कि अनुवाद व्यवहार के मद्देनजर
अनुवाद विज्ञान के साथ व्यतिरेकी भाषाविज्ञान, शैलीविज्ञान,
तुलनात्मक
साहित्य, कम्प्यूटेशनल
भाषाविज्ञान आदि के सम्बन्धों की गुत्थियाँ अभी भी पूरी तरह सुलझी नहीं हैं। सन् 1979 में प्रसिद्ध यूरोपीय विद्वान
वेरनर कोलर ने इस पर विस्तार से विचार किया। उन्होंने महसूस किया कि व्यावहारिक
तौर पर इस दिशा में पहले से पर्याप्त व्यवस्थित काम हो चुका है, बस इसे प्रमुखता से रेखांकित करने
की जरूरत है। इस समाधान हेतु उन्होंने अनुवाद की समतुल्यता की धारणा पर बल दिया।
उनकी यह धारणा अननुवाद्यता के प्रतिपक्ष में थी। जिस पाठ के अनुवाद की कोई गुंजाइश
न हो, उसे अननुवाद्य
पाठ कहा जाता है, हालाँकि
यह एक प्रकार का मिथ ही है। अनुवाद के दौरान भाषा प्रयोग के रूप में चूँकि अनुवाद
की समतुल्यता स्पष्ट दिख रही थी,
स्रोत-पाठ
के शब्दों, या
वक्तव्यों के समतुल्य लक्ष्य-भाषा में स्पष्ट शब्द और वक्तव्य मिल रहे थे, इसलिए संगत भाषा प्रणालियों के
बीच किसी द्वैध की गुंजाइश नहीं बनती थी। करीब दशक भर पूर्व जॉर्ज माउनिन ने भी सॉस्यूर
के पुनरान्वेषण के हवाले से अनुवाद में सापेक्षिक संरचनावाद पर ऐसी ही बात कह दी
थी। मूल बात यह है कि कोई बात कही गई, उसका अर्थ किसी एक भाषा में स्पष्ट है, तो वह कथन किसी दूसरी भाषा में भी
स्पष्टतः व्यक्त हो सकता है! भाषावैज्ञानिक पद्धति भले भिन्न हो, पर भाषाई समतुल्यता के साथ यह बात
न तो व्यावहारिक रूप से असंगत है,
न
सैद्धान्तिक रूप से। अनुवाद में भाषाई समतुल्यता की इस मान्यता से अनुवाद अध्ययन
की नींव मजबूत हुई, सम्बद्ध
शोध, प्रशिक्षण एवं
अन्य गतिविधियों को यूरोपीय समुदाय में सामाजिक, राजनीतिक एवं सांस्थानिक आश्वस्ति मिली, समर्थन मिला, उपयोगी अनुसन्धान के मार्ग
प्रशस्त हुए।
बाद के वर्षों में अनुवाद अध्ययन
का तीव्रता से विकास हुआ। वर्णनात्मक अनुवाद और सांस्कृतिक सन्दर्भों के साथ
वैज्ञानिक पद्धति से विचार करने की सहूलियत विकसित हुई। अनुवाद में सांस्कृतिक और
राष्ट्रीय सन्दर्भों की तुल्यता प्रमुखता से विचारणीय हुई।
इस दिशा में सांस्कृतिक सन्दर्भ
और आगे रहा--सुसन बेसनेट और आन्द्रे लफेवेयर ने अनुवाद के क्षेत्र में पहले तो
इतिहास और संस्कृति के लिए, और फिर
जल्दी ही लिंगवाद, उत्तर-उपनिवेशवाद
और सांस्कृतिक सन्दर्भों जैसे अन्य अध्ययन-क्षेत्रों के साथ अनुवाद के सापेक्ष
अध्ययन और विचार-विनिमय की प्रेरणा जगाई। इक्कीसवीं शताब्दी के प्रवेशकाल में न
केवल विभिन्न चिन्तकों द्वारा प्रस्तावित समाजशास्त्र और इतिहास लेखन का सन्दर्भ
इसमें सुसंगत हुआ, बल्कि
भूमण्डलीकरण और प्रौद्योगिकी भी अनुवाद अध्ययन के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण हो
उठे। बाद के दशकों में तो अनुवाद अध्ययन में विकास की और भी नई दिशाएँ दिखीं।
विश्वविद्यालय स्तर पर अनुवाद अध्ययन से सम्बन्धित पाठ्यक्रमों का तेजी से विकास
हुआ। सन् 1995
आते-आते साठ देशों के विश्वविद्यालयों एवं शैक्षिक संगठनों में अनुवाद और निर्वचन
से सम्बन्धित विविध स्तरीय लगभग ढाई सौ पाठ्यक्रमों की शुरुआत हो गई। सन् 2013 आते-आते अनुवाद सम्बन्धी
पाठ्यक्रम चलाने और प्रशिक्षण देनेवाले संस्थानों की संख्या पाँच सौ से अधिक हो
गई। स्वाभाविक रूप से अनुवाद-सम्मत संगोष्ठियों, सम्मेलनों, पत्रिकाओं, प्रकाशनों की बढ़ोतरी हुई, विकास के इस परिदृश्य से अनुवाद
अध्ययन के लिए राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय संगठनों की प्रेरणा जगी।
पाश्चात्य
अनुवाद चिन्तन
मार्कुस तुलियस सिसेरो की रचना ऑन
द’ ओरेटर (ई.पू. 55) जैसे प्राथमिक पाठ से पश्चिम में
परवर्ती अनुवाद प्रवक्ताओं को काफी प्रोत्साहन मिला। वह पाठ ग्रीक से लैटिन अनुवाद
हेतु होरेस, सन्त
जेरोम, कुछ अन्य
कैथोलिक सुधारकों, तथा 14-17 वीं शताब्दी के मानवतावादियों के
लिए निश्चय ही यथासम्भव प्रेरणास्पद बना और व्याख्यायित भी हुआ। उल्लेखनीय है कि
प्रख्यात विचारकों के ग्रीक भाषणों का लैटिन में अनुवाद करने के अपने अनुभव से
सिसेरो स्वयं को बेहतरीन शब्दों का प्रयोक्ता समझने लगे थे। उल्लेख मिलता है कि
अपनी वक्तृता सुधारने हेतु सिसेरो ने ग्रीक से लैटिन अनुवाद का इस्तेमाल किया।
कवि होरेस ने अपने शैलीपरक चिन्तन
के आधार पर प्रसिद्ध ग्रन्थों की पुनर्प्रस्तुति हेतु तर्क दिया कि यह कार्य एक ही
प्रयास में हो जाने जैसा न तो बहुत आसान है, न ही विश्वसनीयता बरकरार रखने हेतु शब्दानुवाद जैसा असम्भव।
उन्होंने मूल-पाठ के उद्देश्य की रक्षा और चमत्कारी शैली से परहेज हेतु सलाह दी कि
अनुवाद के समय ध्यान रहे कि पाठ का मध्य, प्रारम्भ से,
और
अन्त मध्य से भिन्न न हो जाए। क्विण्टिलियन ने कहा कि ग्रीक रचना के अनुवाद में
हमें अपनी बेहतरीन शब्द-सम्पदा का प्रयोग करना चाहिए, इस क्रम में सम्भव है कि हमें
असंख्य नए शब्दों के अनुसन्धान अथवा सृजन करने पड़ें, कारण ग्रीक और रोमन भाषा में तात्त्विक रूप से बहुत अन्तर है।
सिसेरो एवं होरेस की
चिन्तन-पद्धति के अधिकारी विद्वान सन्त जेरोम ने बड़ी स्पष्टता से घोषित (सन् 395) किया कि पवित्र धार्मिक सन्देशों
के अलावा अन्य ग्रीक पाठ का अनुवाद करने में जहाँ कहीं वाक्यविन्यास दुविधापूर्ण
रहा, मैंने
शब्दानुवाद का मार्ग त्यागकर पाठ के भाव-पक्ष का मार्ग अपनाया। बाइबल एवं अन्य
धार्मिक पाठों के प्रतिष्ठित अनुवादक, सन्त जेरोम ने अनूदित पाठ को नवकल्पना-प्रसूत अविश्वसनीय बनाने
के बजाए, पाठ के
ठीक-ठीक अर्थ-सम्प्रेषण पर बल देते हुए पश्चिमी अनुवाद सिद्धान्त में प्राथमिक
योगदान दिया। उन्होंने स्रोत-पाठ एवं लक्ष्य-पाठ के सन्दर्भ में शाब्दिक और गतिशील
अनुवाद की अवधारणा, शब्दानुवाद
एवं भावानुवाद की महत्ता बरकरार रखी। मूल अर्थ-ध्वनियों की सुसंगत पुनर्प्रस्तुति
की दिशा में जेण्ट्ज्लर ने भी जोर दिया।
आगे आकर सन् 1530 में मार्टिन लूथर (सन् 1483-1546) ने आमजनों के
लिए सम्प्रेषणीय अनुवाद पर बल दिया। चूँकि धार्मिक ग्रन्थों के उनके नए अनुवादों
के भावक बहुधा जनपदीय नागरिक होते थे, इसलिए सम्प्रेषणीयता के अभाव में वह कार्य ही निरर्थक हो जाता।
फिर ओविड नाम से ख्यात रोमन कवि पब्लियस ओविडियस नासो (ई.पू. 43-सन् 17) की कृति के अनुवाद एपिस्टल्स की
भूमिका में प्रसिद्ध अंग्रेजी कवि जॉन ड्राइडन (सन् 1631-1700) ने मेटाफ्रेज
और पाराफ्रेज का जिक्र करते हुए कहा कि मेटाफ्रेज (दूसरे शब्दों में अभिव्यक्ति)
मूल रचनाकार के पाठ का एक भाषा से दूसरी भाषा में शब्द-दर-शब्द अथवा
पंक्ति-दर-पंक्ति अनुवाद है, जबकि
पाराफ्रेज (कथित-कथन) में अनुवादक थोड़ी स्वाधीनता ले लेते हैं, वहाँ अनुवादकों को थोड़ी स्वायत्तता
रहती है। शब्द और अर्थ के अनुसरण का कठोर बन्धन नहीं रहता। अनुवादकों को जहाँ उचित
लगता है, वे न केवल
शब्द और भाव से भिन्न हो जाते, बल्कि
कई बार अवसर देखकर उन्हें छोड़ भी देते हैं। पहले दौर के महत्त्वपूर्ण अनुवाद
चिन्तकों की धारणाओं पर इस तरह विचार करते हुए हम पाते हैं कि क्रमशः अनुवाद
चिन्तन की रूपाकृति तैयार हो गई। इसकी व्यावहारिक और तार्किक प्रकृति ने इतनी तो
आश्वस्ति दी कि दिनानुदिन इन सिद्धान्तों में विकास अवश्यम्भावी है।
आधुनिक काल में आकर पीटर
न्यूमार्क (सन् 1916-2011) ने
अनुवाद की केन्द्रीय समस्या पर विचार करते हुए कहा कि अनुवाद की हमेशा ही दो
पद्धतियाँ होंगी--या तो वह शब्दानुवाद होगा, या स्वतन्त्र अनुवाद होगा। अनुवाद की दो प्रकृतियों--अर्थगत
अनुवाद और सम्प्रेषणीय अनुवाद के बीच भेद करते हुए उन्होंने कहा कि अर्थगत अनुवाद
वैयक्तिक धारणा से सम्पोषित होती है, जो मूल रचनाकार की विचार प्रक्रिया का अनुसरण करते हुए अनुवाद
में अग्रसर होती है, अर्थ
की सूक्ष्मताएँ तलाशती है, व्यावहारिक
प्रभाव सम्प्रेषित करने के क्रम में संक्षिप्तता की ओर उन्मुख रहती है। जबकि
सम्प्रेषणीय अनुवाद में प्रयास रहता है कि मूल-पाठ की सटीक, सुसंगत, प्रासंगिक अर्थ-छवियों के साथ इस
तरह पुनर्प्रस्तुति हो कि कथ्य और भाषा--दोनों स्तरों पर अनुवाद पाठकों के लिए
सहज-सुबोध हो। सूचना-प्रधान और उपदेशात्मक पाठ की स्थिति में अनुवाद की
सम्प्रेषणीयता और भी जरूरी है।
उन्नीसवीं शताब्दी के आरम्भ में, अनुवाद सिद्धान्त पर एक
दर्शन-प्रधान धारणा आई, जिसमें
अनुभवजन्य बातें कम ही दिखीं। इसका सम्बन्ध एक तरफ विश्वविद्यालयीय अनुशासन के रूप
में भाषाशास्त्र से था, तो
दूसरी तरफ स्वच्छन्दतावाद के साहित्यिक आन्दोलन से। सन् 1980 में सुसन बेसनेट की राय बनी कि
मूल-पाठ के सम्पर्क से अपनी सृजनात्मकता और लक्ष्य-भाषा-साहित्य को समृद्ध करते
हुए अनुवादकों को स्वच्छन्दतावाद ने पर्याप्त गर्वोन्नति दी। सन् 1990 में आकर लफेवेयर ने टिप्पणी की
कि भाषेतर पाठ की नई प्रस्तुति हेतु विशेषज्ञों को भाषाशास्त्र के अनुसरण में
जैसा दिग्दर्शन होता है, उसका
प्राथमिक उद्देश्य दूसरे-दूसरे विशेषज्ञों को सम्बोधित रहता है, उस जनसंस्कृति से उनके लगाव नहीं
होते थे, जिसका हिस्सा
वे विशेषज्ञ स्वयं होते थे।
प्राच्य
अनुवाद चिन्तन
हर अनुवाद परम्परा समकालीन अनुवाद
चिन्तकों की धारणाओं से निर्देशित होती है। किसी भाषा की किस कृति का अनुवाद किया
जाए, या फिर न किया
जाए, यह उन्हीं
धारणाओं से तय होता है। भारतीय अनुवाद परम्परा इसका अपवाद नहीं है। प्राचीन काल
में भारत के प्रसिद्ध चिन्तकों ने किसी दूसरे देश की किसी कृति का अनुवाद किया हो, ऐसी कोई सूचना उदाहरण के लिए भी
कहीं दर्ज नहीं है। उल्लेखनीय है कि भारत की प्राचीन शिक्षण पद्धति में गुरुजनों
के लिए अनुवाद का एकमात्र उद्देश्य ज्ञानसम्मत दुर्बोध पाठ का शिष्यों के समक्ष
सम्पूर्ण सम्प्रेषण होता था, जिसके
लिए वे अनुकथन, पुनर्कथन, अन्वय, विश्लेषण, भाष्य, टीका, सरलार्थ, विशेषार्थ, प्रतीकार्थ ...आदि कई पद्धतियों
से अर्थान्वेष किया करते थे। उधर श्रुति-ग्रन्थों की परम्परा से लेकर बाद के दिनों
तक की भाषा-पद्धति में हुए परिवर्तनों के कारण भारतीय आचार्यों को अपने ही
ग्रन्थों का बार-बार भाष्य करना पड़ा। मुगल शासनकाल से पूर्व तक भारतीयेतर ग्रन्थों
की ओर हमारे प्राचीन चिन्तकों की अनुरक्ति का कोई उल्लेख नहीं मिलता, अपने ही चिन्तकों के कालजयी
विचारों के भाष्य में वे निरन्तर व्यस्त रहे। भारतीय ग्रन्थों के अनुवाद के प्रति
दुनिया भर के लोग सदा अनुरक्त रहे,
पर
तथ्य है कि अधिकांश आधुनिक भारतीय भाषाओं में उन कालजयी कृतियों का अनुवाद या कि
कई ग्रन्थों की मूल प्रति आज सहजता से उपलब्ध नहीं है। जिनकी धरोहरों के अनुवाद से
परराष्ट्र लाभान्वित हुए, उस
भव्य विरासत के वंशजों के लिए अपनी कंगाली पर आत्मदया की स्थिति कई बार इस तरह भी
आती है।
सारी भव्यताओं के बावजूद यह
विचारणीय मसला है कि संसार के सारे लोग भारतीय एवं अन्य देशों की महत्त्वपूर्ण
कृतियों के अनुवाद में क्रियाशील थे, तीसरी-चौथी शताब्दी में बौद्ध साहित्य चीन एवं अन्य देशों में
पहुँच गया था; आठवीं
सदी में पंचतन्त्र अरबी के रास्ते दुनिया भर की सैर करने लगा था, फिर भारतीय चिन्तकों को कभी दूसरे
देशों के मूल्यवान ग्रन्थों की ओर अनुरक्ति क्यों नहीं हुई? उनकी यह निरपेक्षता उनकी
अनुवाद-धारणा के प्रति प्रश्नाकुल करता है। या तो वे अपने ग्रन्थों पर इतने मुग्ध
थे कि उन्हें बाहर का सारा कुछ निष्प्रयोजनीय लगता था; या वाकई बाहर कुछ अनुकरणीय नहीं
था; या फिर उन्हें
दूसरे देशों की भाषा सीखकर वहाँ की बौद्धिक सम्पदा अपने यहाँ ले आने की कभी
प्रेरणा नहीं हुई। यह अनुसन्धान का विषय है, पर इस सत्य से नहीं मुकरा जा सकता कि अनुवाद द्वारा स्रोतभाषा
के पाठ का प्रचार-प्रसार भले हो,
किन्तु
समृद्ध तो लक्ष्यभाषा ही होती है। प्राचीन समय में भारतीय वांग्मय के इस तरह
समृद्ध होने की कोई घटना सूचित नहीं दिखती।
बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध तक
यही स्थिति बनी रही। अलबत्ता भारतीय भाषाओं के अनुवाद से ही भारतीय भाषाओं की
समृद्धि होती रही।
भारतीय भाषा में किसी भारतीयेतर
ग्रन्थ के अनुवाद का पहला उदाहरण सन् 1880 में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र द्वारा अनूदित विलियम शेक्सपीयर की
कृति दुर्लभ बन्धु है। इसके बाद फिर महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा अनूदित हर्बर्ट
स्पेन्सर (शिक्षा, 1906), और जॉन
स्टुअर्ट मिल (स्वाधीनता, 1907),
आचार्य
रामचन्द्र शुक्ल द्वारा अनूदित अन्स्र्ट हैकल (विश्वप्रपंच), और बावू राव विष्णु राव पराड़कर
द्वारा अनूदित सखाराम गणेश देउस्कर (देश की बात, 1904) की कृति से स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान भारतीय नागरिकों का आहत
मनोबल ऊँचा हुआ। उपनिवेशवादी धारणाओं से प्रेरित अनुवाद जब भारतीय समाज, कानून, इतिहास, संस्कृति, साहित्य, परम्परा, चेतना और अस्मिता का विरूपित
चेहरा पेश कर रहा था, आचार्य
द्विवेदी, आचार्य शुक्ल
ने भारत की उस अनूदित अस्मिता पेश करने वालों की नीयत पर गहरा आघात किया।
उल्लेखनीय है कि अनुवाद की उपनिवेशवादी दुर्नीतियों के कारण भारतीय अनुवादकों, और अनुवाद चिन्तकों में अनुवाद की
अन्तर्राष्ट्रीय चेतना उग्र हुई। रामचन्द्र शुक्ल ने एडविन अर्नाल्ड की पुस्तक द’ लाईट ऑफ एशिया का हिन्दी अनुवाद
बुद्ध चरित शीर्षक से किया। इन सबके साथ भारतीय अनुवाद की दीर्घ परम्परा में राजा
राममोहन राय, आर.सी.दत्त, दीनबन्धु मित्र, अरबिन्द, रवीन्द्रनाथ टैगोर, प्रेमचन्द, रांगेय राघव, सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला, मैथिलीशरण गुप्त, हरिवंशराय बच्चन, रामधारी सिंह दिनकर, भीष्म साहनी, राजकमल चौधरी, राजेन्द्र यादव, मोहन राकेश, भदन्त आनन्द कौसल्यायन, दत्तात्रय रामचन्द्र बेन्द्रे, विष्णु खरे जैसे महान मनीषियों के
योगदान सर्वदा स्मरणीय रहेंगे। राजा राममोहन राय द्वारा शंकर के वेदान्त और
ईशावास्योपनिषद् के अनुवाद से अंग्रेजी अनुवाद में पहला भारतीय हस्तक्षेप हुआ।
आर.सी.दत्त ने ऋग्वेद, उपनिषद, रामायण, महाभारत और संस्कृत नाटकों के
अनुवाद अंग्रेजी में किया। पर इस दीर्घ और समृद्ध परम्परा में कहीं तर्कसम्पन्न
अनुवाद-चिन्तन का उदाहरण नहीं दिखता। दरअसल भारत के प्राचीन आचार्यों का ध्येय
सामूहिक प्रयासों से पुनीत-कार्यों को पूर्णता देना होता था, श्रेय लेने की व्यग्रता शायद
उनमें नहीं थी, सम्भवतः
इसी कारण पश्चिम की तरह भारत में अनुवाद की सैद्धान्तिक व्याख्या का सूत्र उपलब्ध
नहीं होता। उद्यम के रूप में यद्यपि लक्ष्य केन्द्रित नीति से अग्रसर भारतीय
अनुवाद परम्परा शुरू से ही जाग्रत थी, भग्न-छवि उपस्थित करनेवाली उपनिवेशवादी अनुवाद-नीति देखकर
भारतीय विद्वानों की अनुवाद-चेतना और जाग्रत हुई। बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भिक
दशक में भारतीय नवजागरण के अग्रदूतों के प्रयास में यह सावधानी स्पष्ट दिखती है।
पर शैक्षिक अनुशासन या बौद्धिक घोषणा के रूप में फिर भी इस दिशा में कोई नई शुरुआत
नहीं हुई।
डॉ. नगेन्द्र के सत्प्रयास से सन्
1960-62 में आकर
दिल्ली विश्वविद्यालय में अंशकालीन अनुवाद प्रशिक्षण का सर्टिफिकेट पाठ्यक्रम शुरू
हुआ। बाद के दिनों में केन्द्रीय हिन्दी संस्थान, आगरा द्वारा डिप्लोमा कार्यक्रम की शुरुआत हुई। केरल
विश्वविद्यालय में अनुवाद और प्रशासनिक पत्र-व्यवहार में अंशकालीन सर्टिफिकेट
कार्यक्रम शुरू हुआ। इस समय जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के भारतीय भाषा केन्द्र
में अनुवाद में एम. फिल., पी-एच.
डी. और इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय के अनुवाद अध्ययन एवं
प्रशिक्षण विद्यापीठ में चल रहे अनेक कार्यक्रमों के अलावा पूरे देश के कई शैक्षिक
संस्थानों में अनुवाद प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं। ये कार्यक्रम कहीं एम.
ए., कहीं डिप्लोमा, कहीं स्नातकोत्तर डिप्लोमा और
कहीं सर्टिफिकेट स्तर के हैं, और
सारे कार्यक्रम पूर्णतया स्वतन्त्र अस्तित्व रखते हैं।
इन सारे पाठ्यक्रमों में अनुवाद
के विभिन्न पहलुओं पर प्रशिक्षण तो दिया जाता रहा है, पर बिडम्बना है कि भारतीय मूल के
अनुवाद-चिन्तकों की दृष्टि भी भारतीय अनुवाद परम्परा को तिलांजलि देकर पश्चिम की
ओर रुख कर लेती है। गायत्री चक्रवर्ती स्पीवाक को थोड़ी सुधि आई भी तो वे महाश्वेता
देवी के साहित्य के परराष्ट्रीय भाषाओं में अनुवाद की ओर मुड़ गई, भारत की अन्य अनुवाद-धारा की ओर
उनका ध्यान नहीं के बराबर गया। तेजस्विनी निरंजना भी इस धारणा की अपवाद नहीं रहीं।
ले-देकर कृष्ण कुमार गोस्वामी, हरीश
त्रिवेदी और इन्द्रनाथ चौधरी हैं,
जिनका
अनुवाद-चिन्तन भारतीय अनुवाद परम्परा पर केन्द्रित है। पूर्व पीढ़ी के भोलानाथ
तिवारी, नगेन्द्र जैसे
चिन्तकों को श्रद्धा से अवश्य याद किया जा सकता है। नामवर सिंह, केदारनाथ सिंह, मैनेजर पाण्डेय, विष्णु खरे, अशोक वाजपेयी जैसे विशिष्ट चिन्तक
इस दिशा में कुछ महत्त्वपूर्ण योगदान दे सकते थे, तो उनका अवदान वाचिक परम्परा तक ही सीमित है, पर भारत में उन भाषणों को
प्रकाशित कर सरेआम करने की कोई सदिच्छा नहीं होती। इनके अलावा हिन्दी में जो कुछ
पुस्तकें आती जा रही हैं, उनमें
सूचना-संग्रह का उद्यम अधिक और अनुवादपरक मौलिक भारतीय चिन्तन का उद्यम कम ही
दिखता है। अर्थात भारतीय चिन्तन की दिशा में वर्तमान काल में क्रियाशील पीढ़ी के
शोध और चिन्तन से बड़ी आशा है, निश्चय
ही यह आशा पूरी भी होगी।
विश्व साहित्य
और अनुवाद अध्ययन
विश्व के सभी राष्ट्रीय साहित्य
को समग्रता में विश्व साहित्य कहा जाता है, पर व्यवहारतः जो कृति राष्ट्रीय सीमा पारकर विभिन्न देशों में
अपनी व्यापक ख्याति बना ले उसे लोग विश्व साहित्य में गिनने लगते हैं। अतीत काल
में पश्चिमी यूरोपीय साहित्य की श्रेष्ठ कृतियों को विश्व साहित्य कहा जाता था, यह पदबन्ध आज वैश्विक सन्दर्भ में
प्रयुक्त होने लगा है। उत्कृष्ट अनुवाद के कारण आज दुनिया भर की महत्त्वपूर्ण
कृतियाँ हर जिज्ञासु पाठक को उपलब्ध हैं।
जोहान वोल्फगैंग वॉन गेटे ने
उन्नीसवीं सदी के शुरुआती दशकों में अपने कई निबन्धों में विश्व साहित्य की
अवधारणा का उपयोग गैरपश्चिमी मूल की कृतियों समेत यूरोपीय साहित्यिक कृतियों की
अन्तरराष्ट्रीय ख्याति के वर्णन हेतु किया। अपने शिष्य जोहान पीटर एक्करमैन से उन्होंने
जनवरी 1827 में एक
साक्षात्कार में कहा कि आने वाले वर्षों में साहित्यिक रचनात्मकता के प्रमुख साधन
के रूप में विश्व साहित्य, राष्ट्रीय
साहित्य को विस्थापित कर देगा। उन्होंने भविष्यवाणी की तरह अपनी आश्वस्ति जाहिर की
कि कविता जनसमूह में हर जगह, हर
समय खुद को मूत्र्त करती हुई मानव-जाति के लिए सार्वभौमिक होती है, इस कारण मैं अपने लिए अन्य
राष्ट्रों की धारणा के बारे में सोचता हूँ, और हर किसी को सलाह देता हूँ कि वे भी वैसा ही करें। राष्ट्रीय
साहित्य अब एक निरर्थक पद है, विश्व
साहित्य का युग निकट है, हर
किसी को अपने दृष्टिकोण की बेहतरी का प्रयास करना चाहिए।
प्राचीन कृतियाँ सहित, वैश्विक परिदृश्य की समझ के साथ
लिखा गया सभी समकालीन साहित्य आज विश्व साहित्य समझा जाता है। बीसवीं सदी के अन्त
आते-आते दुनिया भर के बुद्धिजीवी विश्व साहित्य के मद्देनजर अपनी राष्ट्रीय
कृतियों की संरचना के बारे में गहनता से सोचने लगे। लू शुन सहित चीन के कई
प्रगतिशील लेखकों के निबन्धों में भी ऐसा पाया गया।
उन्नीसवीं सदी के दौरान, और काफी दिनों तक बीसवीं सदी में
भी, विश्व साहित्य
की रुचि को राष्ट्रवाद की लहर का ग्रहण लग गया, पर युद्धोत्तरकाल में, तुलनात्मक साहित्य और विश्व साहित्य का संयुक्त राज्य अमेरिका
में पुनरुत्थान हुआ। अप्रवासियों के राष्ट्र के रूप में, और कई पुराने देशों की तुलना में
कमतर सुस्थापित राष्ट्रीय परम्परा के साथ, संयुक्त राज्य अमेरिका तुलनात्मक साहित्य और विश्व साहित्य के
अध्ययन के लिए सम्पन्न केन्द्र बन गया। प्रारम्भ में तो ग्रीक एवं रोमन के प्राचीन
साहित्य और पश्चिमी यूरोपीय शक्तियों के प्रमुख आधुनिक साहित्य को एक हद तक
प्राथमिकता दी गई, लेकिन
1980-90 के दशक में
दुनिया भर के बड़े फलक के लिए खुलापन आया।
गायत्री चक्रवर्ती स्पीवाक जैसे
विचारकों के विमर्शों द्वारा विश्व साहित्य सम्बन्धी बहस जारी रही। कहा गया कि
अनुवाद द्वारा विश्व साहित्य का अध्ययन बड़े महत्त्व का काम है। यह बहुधा मूल-पाठ
की भाषाई समृद्धि और राजनीतिक शक्ति--दोनों को अपने मूल सन्दर्भ में सहज बनाता है।
इसके विपरीत अन्य विद्वानों की राय हुई कि विश्व साहित्य का अध्ययन मूल भाषा और
सन्दर्भों के साथ किया जाना चाहिए,
भले
ही वह कृति के रूप में दूसरे देशों में नए आयाम और नए अर्थ ले ले।
बीसवीं शताब्दी के नौवें दशक से
ई-संचार सुविधा के कारण कलात्मक एवं राजनीतिक मूल्यों से सम्बद्ध एक जीवन्त और
विराट सूचना-शृंखला का आगमन होने लगा। इस शृंखला में राष्ट्रीय परम्पराओं की
अपेक्षा वैश्विक प्रक्रियाओं की ओर उन्मुखता अधिक दिखी। विश्व-साहित्य की अवधारणा
पर इसका सकारात्मक प्रभाव पड़ा। ई-संचार के सहयोग से विश्व साहित्य का वैश्विक
संचरण सुगम हुआ, पाठकों
को दुनिया भर की साहित्यिक प्रस्तुतियों का नमूना सहजता से उपलब्ध होने लगा, हर सीमा और दूरी का अवरोध मिटाकर
यह विश्व वांग्मय के बेहतरीन चयन का अवसर देने लगा। इन सबके बावजूद सचाई है कि
विश्व साहित्य की समझ और संवर्द्धन के लिए व्यापक अन्तरराष्ट्रीय वितरण अकेले
पर्याप्त नहीं है; उत्कृष्ट
कलात्मक मूल्य, मानवीयता, विज्ञान और खासकर दुनिया भर के
साहित्य के विकास की इसमें निर्णायक भूमिका होगी। किसी साहित्यिक कृति का वैश्विक
दर्जा तय करने के लिए सार्वभौमिक स्वीकृति का कोई मापदण्ड बनाना आसान काम नहीं है, क्योंकि कृति का अनुशीलन सम्बद्ध
लौकिक और क्षेत्रीय सन्दर्भों में ही होना चाहिए।
तुलनात्मक
साहित्य और अनुवाद अध्ययन
उन्नीसवीं सदी में उद्भूत
तुलनात्मक साहित्य, एक नव
बौद्धिक क्षेत्र है। इसकी शुरुआत दरअसल तुलनात्मक शरीर रचना विज्ञान, तुलनात्मक कानून, तुलनात्मक भाषाशास्त्र जैसे नए
अनुशासनों के समकक्ष हुई। उक्त क्षेत्रों का उद्देश्य विशिष्ट भाषा, कानून, प्रजाति, साहित्य की भिन्नताओं का पता
लगाना था। साहित्य-शिक्षा हेतु सन् 1816 में प्रकाशित फ्रेंच संकलन कोर्स द’ लिट्रेचर कम्पेरी (Cours de litterature Comparee) से सम्भवतः
तुलनात्मक साहित्य पदबन्ध लिया गया है। बायरन कहते हैं कि राष्ट्रीय अस्मिता और
सांस्कृतिक विरासत के बीच करीबी रिश्ता है। अठारहवीं सदी और उन्नीसवीं सदी के
प्रारम्भिक चरण में पूरे यूरोप में राष्ट्रीयता के मसलों से जुड़े तीव्रता से घटित
सांस्कृतिक घटनाक्रमों के कारण बेहद साहित्यिक अशान्ति छाई हुई थी। पिछले कुछ समय
से स्वाधीनता के लिए संघर्षरत राष्ट्र अपने सांस्कृतिक मूलों के लिए संघर्ष कर रहे
थे। इन स्थितियों से तुलनात्मक साहित्य के प्रारम्भिक सरोकार की कल्पना की जा सकती
है।
अंग्रेजी पदबन्ध ‘कम्परेटिव लिटरेचर’ के हिन्दी पर्याय के रूप में
व्यवहृत ‘तुलनात्मक
साहित्य’ ज्ञान की एक
स्वतन्त्र शाखा है, जिसका
अध्ययन-अध्यापन इन दिनों दुनिया भर के विश्वविद्यालयो में महत्त्वपूर्ण हो गया है।
सन् 1848 में
सर्वप्रथम अंग्रेजी कवि मैथ्यू आर्नल्ड ने अपने एक पर्चे में ‘कम्परेटिव लिटरेचर’ पदबन्ध का प्रयोग किया था। भारत
में सन् 1907 में
रवीन्द्रनाथ टैगोर ने विश्व-साहित्य के परिप्रेक्ष्य में साहित्य-अध्ययन के दौरान
तुलनात्मक दृष्टि की आवश्यकता पर बल दिया।
‘तुलनात्मक साहित्य’ की अस्मिता दरअसल एकल साहित्य-अध्ययन से भिन्न है। एकल साहित्य
के अध्ययन की दिशा सीमित होती है,
जबकि
‘तुलनात्मक
साहित्य’ व्यापक अध्ययन
की माँग करता है। वस्तुतः यह तुलना रचनाकारों के बेहतर-कमतर होने की नहीं होती; यह तुलना रचना-दृष्टि के
साम्य-वैषम्य के आधार-बिन्दु; रचनात्मक
भाव, संवेदनाएँ, विचार, कला-कौशल की सार्थकता-निरर्थकता, औचित्य-अनौचित्य की होती है।
भारत एक बहुभाषी देश है। डेढ़ हजार
के आसपास की संख्या के मातृभाषाओं के बीच अनेक समुन्नत साहित्यिक भाषाएँ वर्तमान
समय में अस्तित्व में हैं। एक सत्य यह भी है कि भाषिक एवं आचारपरक भिन्नताओं के
बावजूद संरचना में ऐसा कुछ अवश्य है कि भारतीय भाषाओं में समरूपता भी है। इसी तरह
यह भी सच है कि जातीय इतिहास, सामाजिक
चेतना, सांस्कृतिक
मूल्य एवं साहित्यिक संवेदना के सन्दर्भ में सभी भारतीय भाषाओं का साहित्य एक है।
साहित्य अकादेमी के उत्सव में अध्यक्षीय वक्तव्य देते हुए महान साहित्य चिन्तक यू.
आर. अनन्तमूर्ति ने कभी सच ही कहा था कि भारत देश अपनी बाइस भाषाओं में एक ही बात
बोलता है। विभिन्न भारतीय भाषाओं के साहित्य का अनुशीलन करते हुए यह बात सौ फीसदी
सच लगती है। ‘भारतीय
साहित्य और संस्कृति’ के
ऐक्य के उस अन्तरंग सूत्र की पहचान अत्यावश्यक है। बीते वर्षों में बड़े-बड़े
चिन्तकों ने इस दिशा में गम्भीरतापूर्वक काम किया है। तुलनात्मक साहित्य के अध्ययन
हेतु तकनीक विकसित करने की चिन्ता कई विश्वविद्यालयों में दिख रही है।
नामालूम कारणों से भारत के कुछ
आधुनिक सुवक्ताओं ने इस बात की धूम मचा रखी है कि प्राचीन भारतीय परम्परा में
तुलनात्मक साहित्य पर ध्यान नहीं दिया गया। खासकर संस्कृत में कतई नहीं दिया गया।
विद्वानों के ऐसे वक्तव्य अक्सर चकित करते हैं। इस तरह के कथन प्रायः ‘वासुदेव कृष्ण के पिज्जा न खाने’ की घटना पर शोक प्रकट करने जैसे
हैं। ऐसी धारणा सामान्यतया हीन मनोदशा के कारण बनती है, जो आम भारतीयों की सहज वृत्ति-सी
हो गई है। किसी उद्यम की उपस्थिति-अनुपस्थिति पर विचार करते हुए हमें काल-परिवेश
का ध्यान रखना चाहिए। अपने विरासत पर गौरवान्वित होने का भाव भी हमें सीखना चाहिए।
‘उपमा
कालिदासस्य भारवेरर्थ गौरवम्...’
जैसे
श्लोक-खण्ड और ‘ताल
में भूपाल ताल और सब तलैया...’ जैसी
किंवदन्तियों की पंक्तियाँ क्या हमें अपनी तुलनात्मक दृष्टि के प्रति आश्वस्त नहीं
करतीं? भारतीय
काव्यशास्त्रों के अलंकार विधान,
खास
कर उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक आदि अलंकार का आधार तुलना ही
तो है! असल बात है कि विद्वानों को कुछ कहना होता है, उस कहने में वे ‘मुझ-सा बुरा न कोय’ की तर्ज पर आत्मान्वेषी हो जाते
हैं; और झट से खुद
को विपन्न कहने की महत्ता दिखाकर महान हो जाने का शौक पाल लेते हैं। फटाफट कबूल
लेते हैं कि हमारे यहाँ यह बात नहीं है। इसे चाहें तो भारतीय मानस की शालीनता भी
कह सकते हैं कि वे खुद को विपन्न कहने में भी गौरवान्वित ही होते हैं! असल में
तुलनात्मक साहित्य के प्रसंग में भी हमारे प्राचीन चिन्तकों की पद्धति वही रही, जो अनुवाद अध्ययन के प्रसंग में
रही। वे अपने जतन में लगे रहे। अपने कर्तव्यों और कर्तव्य की परिणतियों का
वर्गीकरण करने में उन्होंने समय नहीं गँवाया। फिर यह भी तो सच है कि हर उद्यम का
चरित्र सम्बद्ध स्थान-काल-पात्र के अनुसार होगा! यह जरूरी तो नहीं कि भारतेन्दु
हरिश्चन्द्र, या
राजा शिवप्रसाद सितारेहिन्द, या
कवीश्वर चन्दा झा वैसा ही करें, जैसा
कीट्स या वर्ड्सवर्थ या मैथ्यू आर्नाल्ड ने किया हो! बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय या
रवीन्द्रनाथ टैगोर ने तो स्पष्टतः तुलनात्मक साहित्य की दिशा में उल्लेखनीय शुरुआत
की ही; भारतीय
नवजागरण, हिन्दी
नवजागरण और भारतेन्दु मण्डल के उद्यमों में बड़ी स्पष्टता से इसकी झलक देखी जा सकती
है। हर किसी की चिन्तन-पद्धति का अपना तौर-तरीका होता है। दो भौगोलिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक परिवेश का चिन्तन
एक-सा हो, यह कतई आवश्यक
नहीं! स्पष्ट मानना चाहिए कि अपनी परिस्थिति के अनुसार भारत में भी तुलनात्मकता की
स्थिति सदा से रही है, विधिवत
उस पर अध्ययन होता आया है। कोई बताएँ कि किस दृष्टि से राजशेखर(सन् 880-920) रचित
पद्य--येषां वल्लभया समं क्षणमिव क्षिप्रम् क्षपा क्षीयते/तेषां शीतकरो शशी
विरहिणामुल्कैव सन्तापकृकृत/अस्माकं न तु वल्लभा न विरहस्तेनोभयाभावतः/चन्द्रौ राजति
दर्पणाकृति नोष्णो न वा शीतलःड्ड (काव्यमीमांसा, नवम् अध्याय)। में तुलनात्मकता नहीं है! विदित है कि
तुलनात्मकता किसी पाठानुशीलन की कोई स्वाधीन-क्रिया नहीं है; प्रथम सोपान भी नहीं। पाठ के हाथ
आते ही हम तुलना नहीं शुरू कर देते। अनुशीलन की व्यवस्थित क्रिया-शृंखला से गुजर
कर साम्य-वैषम्य की कसौटी से एक पाठ की दूसरे से तुलना करते हैं। इस तरह तुलना से
न शुरू हुई बात भी तुलना से समाप्त हो सकती है।
तुलनात्मक साहित्य दरअसल
उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरकाल में उभार में आया। इसकी पहचान राष्ट्रीय साहित्य, सामान्य साहित्य और विश्व साहित्य
से अलग है। जर्मनी में सन् 1860 में ‘लिट्रेचर कम्पेयर’ के रूप में इसकी शुरुआत हुई और
सन् 1897 में
तुलनात्मक साहित्य को एक अध्ययन के रूप में मान्यता मिली। प्रख्यात कवि मैथ्यू
अर्नाल्ड ने सन् 1848 में
सर्वप्रथम अंग्रेजी में कम्परेटिव लिट्रेचर पदबन्ध का प्रयोग किया। उनके अनुसार ‘हर जगह कोई न कोई सरोकार है, हर जगह कोई न कोई निदर्शन है, कोई भी घटना, कोई भी साहित्य अन्य घटनाओं, अन्य साहित्यों की सापेक्षता के
बिना सम्पूर्ण सम्प्रेषणीयता के लिए स्वयं पर्याप्त है।’
मानवीय स्वभाव के तहत हर समय किसी
नए पाठ से गुजरते हुए हम, किसी
दूसरे पाठ से, एक
दूसरे के विचारों की तुलना करने की चेष्टा करते हैं। हर दो वस्तु-विषय-प्रसंग में
कोई न कोई सरोकार ढूँढते हैं। तुलना करनेवाले हर-हमेशा दो पाठों, संस्कृतियों, साहित्यों के बीच वही समतुल्य
सरोकार ढूँढने की कोशिश करते हैं। कह सकते हैं कि तुलनात्मक साहित्य सीमाओं का
अतिलंघन कर विभिन्न साहित्यों में निकटता और सद्भाव लाता है, यह तुलनात्मक साहित्य का चरम
लक्ष्य होता है।
तुलनात्मक साहित्य में अध्ययन के
उद्देश्य, तुलनात्मकता
के उद्देश्य, तुलनीय
पाठों के अपने-अपने मानदण्डों के समक्ष तुलनात्मकता के मानदण्ड, तुलना के आधार-चयन, तुलनात्मक साहित्य अनुशासन है या
अध्ययन विशेष का एक क्षेत्र? --ऐसे
कई सवाल उठाए जा सकते हैं। रेने वेलेक ने इसे तुलनात्मक साहित्य की परेशानियों के
रूप में रेखांकित किया।
इस सन्दर्भ में भारत जैसे बहुभाषी
एवं बहुसांस्कृतिक देश में तुलनात्मक साहित्य पर गम्भीरता से विचार करने की बड़ी
गुंजाइश है। तुलनात्मक अध्ययन की ओर अग्रसर चिन्तक यहाँ की भाषिक, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक
भिन्नताओं के बीच तुलनात्मकता के रोचक सूत्र तलाश सकते हैं।
तुलनात्मक साहित्य तो पारम्परिक
रूप से अनुवाद को अपनी उपश्रेणी मानता आया है, पर एक अनुशासन के रूप में अनुवाद अध्ययन के उदय के बाद, इस धारणा पर सवाल खड़े होने लगे।
आलोचकों के बीच बहस का प्रमुख मुद्दा बना कि उपश्रेणी तुलनात्मक साहित्य है, या अनुवाद अध्ययन? टॉउरे, लफेवेयर, हरमन्स, लैम्बर्ट जैसे कई विद्वानों ने
अनुवाद को महान सांस्कृतिक परिवर्तन के क्षणों का विशिष्ट कर्ता माना है। इवेन
जोहर की राय में किसी संस्कृति के संक्रमण के क्षण में अनुवाद की सघन गतिविधि
महत्त्वपूर्ण हो उठती है। जब किसी संस्कृति का विस्तारण होता है, उसके नवीकरण की जरूरत होती है, वह किसी क्रान्तिपूर्व चरण में
होती है, अनुवाद की
भूमिका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हो जाती है। इसके ठीक पलट जब कोई संस्कृति दृढ़ हो
जाती है, किसी
साम्राज्यवादी अवस्था में आ जाती है, अपने वर्चस्व के प्रति आश्वस्त हो जाती है, अनुवाद का महत्त्व घट जाता है। उल्लेखनीय
है कि सारे विकास-विस्तार एवं परिचय की सभी क्रियाएँ सहमतिपूर्ण संवाद से सम्भव हो
पाती हैं। अनुवाद के महत्त्वहीन होने का अर्थ संवादहीनता है। अनुवाद नहीं तो संवाद
नहीं; संवाद नहीं तो
परिचय नहीं; परिचय
नहीं तो विकास नहीं; और
विकास के बिना जड़ता। तय है कि अनुवादविहीन होकर कोई समाज जड़ संस्कृति का समाज हो
जाएगा; जड़ता का एक
पर्याय मृत्यु भी है।
इस समय भाषा-विज्ञान और
संकेत-विज्ञान की पारस्परिकता पर पुनर्विचार हेतु अनुवाद अध्ययन अनिवार्य हो गया
है, अर्थात
तुलनात्मक साहित्य को अनुवाद अध्ययन के साथ अपनी पारस्परिकता पर पुनर्विचार का सही
समय यही है। संकेत-विज्ञान कभी भाषा-विज्ञान की उपश्रेणी हुआ करता था, पर बाद में स्पष्ट हुआ कि तथ्य
इसके विपरीत है, दरअसल
भाषा-विज्ञान अपने व्यापक प्रभाव के साथ संकेत-विज्ञान का छत्रधर अनुशासन है।
अनुवाद अध्ययन को अपनी उपश्रेणी मानने के तुलनात्मक साहित्य के दावे के बावजूद
अन्तर्सांस्कृतिक अध्ययन पर आधारित विषय के रूप में अनुवाद अध्ययन की वर्चस्वपूर्ण
पहचान कायम हुई, और
सैद्धान्तिक एवं वर्णनात्मक--दोनों ही दृष्टियों से प्रभावपूर्ण पद्धति की पेशकश
हुई, इसलिए
तुलनात्मक साहित्य को इसकी शाखा मानने में कोई संशय नहीं है। अनुवाद अध्ययन और
तुलनात्मक साहित्य का वास्तविक सम्बन्ध यही है।
तुलनात्मक साहित्य एकाधिक भिन्न
भाषाई, सांस्कृतिक या
राष्ट्रीय समूह के साहित्य के पारस्परिक अकादेमिक अध्ययन का क्षेत्र है। बहुधा
अलग-अलग भाषाओं के साहित्यों के बीच पारस्परिक अध्ययन के बावजूद कई बार यह समान
भाषा के कला-क्षेत्रों में भी लागू होता है, जब कलाकृति का मूल उन भिन्न राष्ट्रों या संस्कृतियों से
प्रारम्भ होता है, जहाँ
वह भाषा बोली जाती है। कभी-कभी कलारूप की भिन्नताओं से भी यह लागू होता है, जैसे मूर्तिकला और साहित्य, सिनेमा और साहित्य आदि। कई बार
इतिहास, राजनीति, दर्शन, विज्ञान सहित मानवीय गतिविधि के
अन्य क्षेत्रों से साहित्य के सरोकार तुलनात्मक साहित्य के फलक में समा जाते हैं।
पारम्परिक रूप से कई भाषाओं के
दक्ष अनुवाद चिन्तक अपने अध्ययन के दौरान सम्बद्ध भाषा की साहित्यिक परम्पराओं, साहित्यिक आलोचना, और प्रमुख साहित्यिक ग्रन्थों से
परिचित हुए हैं। उच्च भाषाई क्षमता वाले सैद्धान्तिक कौशल एवं विभिन्न समवर्ती
कलारूपों की दक्षता पर बल देते हुए नव-प्रविष्ट महत्त्वपूर्ण आलोचनात्मक एवं
साहित्यिक सिद्धान्त, उन
भाषाओं में अधिक प्रभावी हो उठे हैं। अपनी अन्तरानुशासनिक प्रकृति के कारण
तुलनात्मक साहित्य का सरोकार अनुवाद अध्ययन, समाजशास्त्र,
आलोचना
सिद्धान्त, संस्कृति
अध्ययन, धर्म-शास्त्र
अध्ययन, इतिहास जैसे
कई क्षेत्रों से जुड़ जाता है। लिहाजा, विश्वविद्यालयों में तुलनात्मक साहित्य कार्यक्रम की रूपरेखा
कई विभागों के सम्मिलन से तैयार किया जाना लाजिमी है।
तुलनात्मक साहित्य के विशेष
अध्ययन हेतु संयुक्त राज्य अमेरिका के कई विश्वविद्यालयों में अलग व्यवस्था है।
भारत के कई विश्वविद्यालयों में भी इस पर अलग अध्ययन की व्यवस्था बनाई गई है।
तुलनात्मक साहित्य के अध्येता राष्ट्रीय सीमाओं, कालावधियों, भाषा-बन्धों, विधाओं, साहित्यिक सीमाओं, संगीत, चित्रकला, नृत्य, फिल्म जैसी अन्य कलाओं, साहित्य, मनोविज्ञान, दर्शन, विज्ञान, इतिहास, वास्तुकला, समाजशास्त्र, राजनीति जैसे अनुशासनों के पार
अन्तरानुशासनिक वैशिष्ट्य के साथ अध्ययन करते हैं। यूँ कहें कि तुलनात्मक साहित्य
एक निस्सीम साहित्य का अध्ययन है,
जो
राष्ट्रीय, भाषाई, और सांस्कृतिक फलक का सीमा-बन्ध
तोड़ देता है।
अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर इसके तीन
स्कूल बताए जाते हैं--
फ्रेंच स्कूल
बीसवीं सदी के प्रारम्भिक वर्षों
से लेकर द्वितीय विश्व युद्ध तक के अनुभूतिवादी और प्रत्यक्षवादी दृष्टिकोण के
चिन्तन विधान को फ्रेंच स्कूल कहा गया, जिसमें विभिन्न देशों की कृतियों के मूल के साक्ष्य और कृतियों
के पारस्परिक प्रभावों की जाँच विद्वान-जन अदालती दृष्टि से करते थे, और वे निर्णय कर पाते थे कि कैसे
कोई खास साहित्यिक विचार या भाव का संचार राष्ट्र और काल के पार तक होता है।
तुलनात्मक साहित्य के फ्रेंच स्कूल में प्रभाव और मनोवृत्ति का अध्ययन प्रमुख होता
है। आज, फ्रेंच स्कूल
में इस अनुशासन के अन्तर्गत राष्ट्र-राज्य (nation-state) के
दृष्टिकोण का अध्ययन चलन में है,
यद्यपि
यह यूरोपीय तुलनात्मक साहित्य को भी बढ़ावा देता है। फ्रेंच स्कूल साहित्यिक
ग्रन्थों के अध्ययन के साथ कृतियों के पारस्परिक प्रभाव का भी अध्ययन करता है।
शब्दावलियों पर केन्द्रित दृष्टि से वह शब्दों के प्रभाव, शब्दों के अधिग्रहण, शब्दों के उधारीकरण और शब्दों के
अनुकरण के बीच स्पष्ट भेद ढूँढता है। वह प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष प्रभाव, साहित्यिक/साहित्येतर प्रभाव, सकारात्मक/नकारात्मक प्रभाव के
बीच भी भेद ढूँढता है।
अमेरिकी स्कूल
फ्रेंच स्कूल की प्रतिक्रिया में
उद्भूत अमेरिकी स्कूल का मुख्य उद्देश्य साहित्यिक ग्रन्थों की राजनीतिक सीमाओं से
परे जाकर तुलनात्मक साहित्य को राजनीतिकरण से मुक्त करना था। यह मुख्यतः
सार्वभौमिकता और अन्तरानुशासनिकता पर आधारित है। इसके अस्तित्व में आने से पूर्व, पश्चिम में तुलनात्मक साहित्य का दायरा
पश्चिमी यूरोप और एंग्लो-अमेरिका के साहित्य, मुख्यतः अंग्रेजी, जर्मन और फ्रेंच साहित्य, दाँते के सन्दर्भ में इतालवी साहित्य, सर्वान्तेस के सन्दर्भ में
स्पेनिश साहित्य तक ही सीमित था। सांस्कृतिक अध्ययन के समकालीन अध्येताओं के लिए
अमेरिकी स्कूल का दृष्टिकोण सहज साबित हो सकता है। वैविध्य से भरे इस क्षेत्र के
अध्येता आज नियमित रूप से चीनी, अरबी
और दुनिया भर की भाषाओं के प्रमुख साहित्य का अध्ययन कर रहे हैं। इसके अध्ययन के
मुख्यतः दो क्षेत्र हैं--समानान्तरता और अन्तर्पाठीयता। समानान्तरता के अधीन इसमें
कृतियों के पाठ के वैषम्य नहीं, समान
सन्दर्भों और यथार्थों के अध्ययन की गुंजाइश रहती है। इसमें साहित्यिक कृतियों के
बीच पारस्परिक प्रभाव दिखने पर प्रभाव के बजाए सन्दर्भ को महत्त्व दिया जाता है।
सन्दर्भ यदि प्रभाव को प्रबल नहीं होने दे तो प्रभाव को कभी प्राथमिकता नहीं दी
जाती। अन्तर्पाठीयता के अधीन यहाँ प्रदत्त पाठ, किसी अन्य पाठ के लिए सन्दर्भ होता है। नया पाठ पुराने पाठ पर
वर्चस्व रखता है। नया पाठ हमेशा पुराने पाठ के आलोक में पढ़ा जाता है। साहित्य नए
सिरे से पुराने पाठ के पुनर्गठन की एक अबाध और सतत प्रक्रिया होती है। पुराना पाठ, नए पाठ के निर्माण का आधार होता
है।
जर्मन स्कूल
जर्मन तुलनात्मक साहित्य का उद्भव
उन्नीसवीं सदी के अन्तिम चरण में हुआ। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, हंगरी के विशिष्ट विद्वान, पीटर स्जोण्डी (सन् 1929-1971) के एकनिष्ठ
योगदान से इस अनुशासन का व्यापक विकास हुआ, वे फ्री युनिवर्सिटी ऑफ बर्लिन में नाटक, गीत, कविता, और हर्मेन्युटिक्स सहित सामान्य
और तुलनात्मक साहित्य अध्ययन के अध्यापक थे। इस अनुशासन से सम्बद्ध उनका दृष्टिकोण
उनके द्वारा बर्लिन में आमन्त्रित अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति के विशेषज्ञों के परिचय
और व्याख्यान से स्पष्ट होने लगा था। स्जोण्डी ने जाक देरीदा का व्याख्यान उनकी
वैश्विक ख्याति से पूर्व ही अपने यहाँ आयोजित करवाया। उन्होंने फ्रांस से पियरे
बौरदिए एवं लूसिए गोल्डमान, ज्यूरिख
से पाॅल डी मान, येरूशलेम
से जरशॉम शॉलम, फ्रैंकफर्ट
से थियोडोर अडोर्नो जैसे अनेक विश्वविख्यात विद्वानों को संसार के कोने-कोने से
व्याख्यान हेतु आमन्त्रित किया। तुलनात्मक साहित्य के स्वरूप एवं मानदण्ड
निर्धारित करने वाले इन सभी विद्वानों ने तुलनात्मक साहित्य अध्ययन सम्बन्धी
स्जोण्डी की पूरी संकल्पना का मार्ग प्रशस्त किया। बहुराष्ट्रीय तुलनात्मक साहित्य
की उनकी अवधारणा संरचनावाद के रूसी और प्राग स्कूल के पूर्वी यूरोपीय साहित्यिक
सिद्धान्तकारों से अत्यधिक प्रभावित थी, जिनसे प्रभावित होकर रेने वेलेक ने भी तुलनात्मक साहित्यिक
सिद्धान्त की अपनी कई समकालीन और महत्त्वपूर्ण अवधारणाएँ विकसित कीं। म्यूनिख
विश्वविद्यालय द्वारा प्रकाशित एक पुस्तिका में जर्मनी में तुलनात्मक साहित्य में
डिप्लोमा देनेवाले 31
विभागों की सूची जारी की गई।
समकालीन
साहित्य चिन्तन और अनुवाद अध्ययन
विकासमान शैक्षिक विधान, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के
प्रोन्नत अवदान, वैश्वीकरण
के वर्चस्व, अन्तस्सांस्कृतिक
सम्बन्ध, राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय
साहित्यिक सम्मिलन आदि में अनुवाद की बहुविध भूमिका देखते हुए आज यह कहना सुसंगत
होगा कि अपने अन्तरानुशासनिक दृष्टिकोण के साथ अनुवाद अध्ययन इस समय समकालीन
साहित्य चिन्तन का अनिवार्य खण्ड हो गया है। विश्व साहित्य और तुलनात्मक साहित्य
जैसे नव शैक्षिक क्षेत्र अनुवाद अध्ययन के निकटतम उपश्रेणी हैं, अनुवाद एवं अनुवाद अध्ययन के बिना
इन अनुशासनों की अवधारणा ही असम्भव हो जाएगी। भूमण्डलीकरण, अन्तरराष्ट्रीय राजनयिक सम्बन्ध, नव जनसंचार माध्यम, नई व्यापार नीति, नई शिक्षा पद्धति, शासन तन्त्र, पर्यटन, इलेक्ट्रोनिक तन्त्रजाल...कोई भी
क्षेत्र इस समय अनुवाद की पहुँच से बाहर नहीं है। जाहिर है कि वर्तमान सन्दर्भ में
स्वयं को सावधान, समकालीन, अद्यतन, और सुसंगत बनाए रखने के लिए हर
किसी को अनुवाद से सम्बद्ध रहना पड़ेगा। अनुवाद से सम्बद्ध रहे बगैर इस समय किसी भी
भाषा का साहित्य समकालिक नहीं हो सकता। हर साहित्य के सैद्धान्तिक विवेचन हेतु
विश्व साहित्य और तुलनात्मक साहित्य से संवाद एक अनिवार्य गतिविधि मानी जाती है।
ज्ञान-विज्ञान की तमाम शाखाएँ आज वैश्विक परिदृश्य से न्यूनतम संवाद की अपेक्षा
रखती हैं। इन दिनों उदार सांस्कृतिक दृष्टिकोण से राष्ट्रीय सीमाओं के पार जाकर
तुलनात्मक साहित्य पर गहन पुनरावलोकन किया जा रहा है। अलमगीर हशमी (द’ कॉमनवेल्थ, कम्परेटिव लिट्रेचर, एण्ड वल्र्ड), गायत्री चक्रवर्ती स्पीवाक (डेथ ऑफ
ए डिसीप्लीन), डेविड
डैमरॉश (व्हाट इज वल्र्ड लिट्रेचर?)
स्टीवन
टॉटॉसी द जेपेटनेक (कम्परेटिव कल्चरल स्टडीज), पास्कल कसानोवा (द’ वल्र्ड रिपब्लिक ऑफ लेटर्स) की कृतियों और अवधारणाओं से इस
दिशा में विचार हो रहा है। तुलनात्मक साहित्य के राष्ट्र-केन्द्रित सोच और राष्ट्र-राज्य
(nation-state) के मुद्दों
से सम्बद्ध साहित्य का अध्ययन किया जा रहा है। भूमण्डलीकरण और अन्तर्सांस्कृतिकता
के वर्तमान परिदृश्य में विश्व साहित्य और तुलनात्मक साहित्य की अहम भूमिका के
कारण अनुवाद अध्ययन एक महत्त्वपूर्ण शैक्षिक क्षेत्र के रूप में सामने आया है।
फलस्वरूप वैश्विक परिदृश्य में ही नहीं, राष्ट्रीय परिदृश्य में भी समकालीन साहित्य चिन्तन के लिए
अनुवाद अध्ययन एक अनिवार्य घटक दिखता है।
एक शैक्षिक शाखा के रूप में ‘अनुवाद अध्ययन’ पदबन्ध का उदय और विकास बीसवीं
शताब्दी के अन्तिम चरण की घटना है। इस समय तक आते-आते ज्ञान-विज्ञान की विभिन्न
शाखाओं और प्रौद्योगिक उन्नयन के कारण दुनिया भर के शैक्षिक वातावरण में बेशुमार
तरक्की हुई। शैक्षिक क्षेत्र में विशेषज्ञता सम्पन्न ज्ञानात्मक शाखाओं की यथेष्ट
बढ़ोतरी हुई। दुनिया भर के इस उत्थान और उपलब्धियों से परिचित होने के लिए अनुवाद
एक बड़ा माध्यम बना। भाषाई सक्षमता के अभाव में इस वैश्विक ज्ञान-सम्पदा से अपनापा
स्थापित करना असम्भव था। साहित्यिक समालोचना के नए सैद्धान्तिक दृष्टिकोण को भी
अन्तरानुशासनिकता और अन्तस्सांस्कृतिकता से संवाद करने की जरूरत आन पड़ी। विश्व साहित्य
और तुलनात्मक साहित्य की अवधारणा साहित्यानुशीलन में इस तरह पैठ गई कि छोटी-छोटी
टिप्पणियों तक में इसका सहारा लिया जाने लगा। अर्थात, समकालीन साहित्य चिन्तन हेतु
अनुवाद और अनुवाद अध्ययन महत्त्वपूर्ण हो उठा। अनुवाद अध्ययन का सीधा अर्थ अनुवाद
के प्रयोजन, प्रारम्भ, ध्येय-धारणा, इतिहास, परम्परा, विकासक्रम, कोटि-फलक, विधि-विधान, अनुशीलन-मूल्यांकन, प्रयुक्ति क्षेत्र, सावधानी, जोखिम, हस्तक्षेप क्षेत्र...अर्थात
अनुवाद से जुड़े समस्त प्रसंगों की विश्लेषणपरक व्यख्या है। जाहिर है कि समकालीन
साहित्य चिन्तन हेतु अनुवाद अध्ययन एक अनिवार्य अनुशासन है।
अनुवाद के
शैक्षणिक प्रयोग
ज्ञान की अन्य शाखाओं की तरह
अनुवाद के क्षेत्र में भी प्रशिक्षण एक महत्त्वपूर्ण घटक है। ध्यातव्य है कि अपनी
परिणति में यह ‘शिक्षा’ के प्रचलित अर्थों से थोड़ा भिन्न
है। ‘शिक्षा’ से प्राप्त कौशल द्वारा मनुष्य
अपनी मानसिक, बौद्धिक, रचनात्मक क्षमता को सम्पन्न करता
है, सही-गलत के
निर्णय में सहयोग लेता है; किन्तु
‘प्रशिक्षण’ से समुचित कौशल पाकर कार्य-विशेष
को पूरा करने की विधियों से अवगत होता है।
इन दिनों अनुवाद जीवन-व्यवहार के
हर क्षेत्र--राष्ट्रीय, सामाजिक, साहित्यिक, व्यावसायिक, वैज्ञानिक, प्रौद्योगिकीकृमें सभी स्तरों पर
महत्त्वपूर्ण हो उठा है। अनुवाद-अध्ययन आज ज्ञान की अनिवार्य शाखा के रूप में
स्वीकृत है। राज-काज, जीवन-व्यवहार
और राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय नीति में इसकी भूमिका उल्लेखनीय है। स्पष्टतः इस उद्यम
में प्रशिक्षण की महत्ता अपरिहार्य है। अनुवाद-कार्य में ‘स्रोत-भाषा’ और ‘लक्ष्य-भाषा’ के बेहतरीन ज्ञान की जरूरत तो है
ही, पर केवल
भाषा-ज्ञान पर्याप्त नहीं है। इसकी पूरी प्रक्रिया एक कौशल सम्पन्न कलात्मक
विज्ञान है, जिसमें
दो भाषाओं के सामाजिक, सांस्कृतिक, भौगोलिक, एवं लौकिक परिदृश्य का आपसी संवाद, संघर्ष, सम्मिलन और संवर्द्धन सम्भव होता
है। इस पुनीत और जरूरी कार्य में बेहिसाब जोखिम और जटिलताएँ हैं। अनुवाद-प्रशिक्षण
उन्हीं जटिलताओं के निराकरण और जोखिमों से बचाव का मार्ग प्रशस्त करता है।
स्रोत-पाठ के शब्दों का पर्याय
लक्ष्य-पाठ में ढूँढ लेना भर अनुवाद नहीं है; यह सुविधा तो कोश में सहजता से मिल जाती है! स्रोत-भाषा के
सामाजिक, सांस्कृतिक, भौगोलिक परिदृश्य के पूरे सन्दर्भ
में मूल-पाठ के समतुल्य सन्देश की पुनर्प्रस्तुति ही उपयुक्त अनुवाद कार्य का मूल
उद्देश्य होता है। इसलिए कोश के सहयोग से शब्दों, प्रयुक्तियों का समुचित चयन करते हुए बड़ी सावधानी की जरूरत
होती है; अनुवाद-प्रशिक्षण
में इसी सावधानी का पाठ पढ़ाया जाता है। हर भाषा के पाठ में सम्बद्ध भाषिक भूगोल के
लोक, शास्त्र, वातावरण का सन्दर्भ अनुगुम्फित
रहता है। इसलिए व्यतिरेकी पद्धति से लक्षित-पाठ में स्रोत-पाठ के समानार्थी
वाक्यों, पदबन्धों के
कौशलपूर्ण चयन के लिए सावधान रहना पड़ता है। प्रशिक्षण में सिद्धान्त विषयक ज्ञान
और अनुप्रयोग पक्ष की सावधानी के साथ-साथ पुनरीक्षण, मूल्यांकन एवं समीक्षा का अभ्यास कराना भी शामिल होता है। विषय
क्षेत्र की भिन्नता के कारण अनुवाद का भाषा-फलक बदल जाता है। इसमें पाठान्तरण के
अलावा विभिन्न अनुवादधर्मी कार्य-व्यापारों--सारांश, संक्षेपण-पल्लवन, व्याख्या, अर्थ-निरूपण, कोश निर्माण आदि का शिक्षण, प्रूफ संशोधन और
कम्प्यूटर-इण्टरनेट जैसे प्रौद्योगिक संसाधनों के सहयोग से अनुवाद करने के
प्रशिक्षण भी दिए जाते हैं। इसमें प्रतिलिप्यधिकार, व्यावसायिक नैतिकता और व्यवहार नियमावली जैसे पक्षों का बोध भी
महत्त्वपूर्ण होता है। इस तरह प्रशिक्षित मानव संसाधन तैयार कर अनुवाद और अनुवाद
अध्ययन के क्षेत्र में उत्कर्ष लाने हेतु अनुवाद प्रशिक्षण का महत्त्व सहज-सिद्ध
है। विहित दृष्टि पाकर प्रशिक्षित अनुवादक जो अनुवाद करता है, वह मौलिक कृति की तरह प्रभावकारी
बन जाता है। प्रशिक्षण से अनुवादक का मनोबल ऊँचा होता है, आत्मशक्ति बढ़ती है, और रुचियाँ अभिप्रेरित होती हैं, फलस्वरूप उद्यम के परिणाम में
निखार आता है।
संसार के अनेक शैक्षिक संस्थानों
में अनुवाद, अनुवचन, आत्मसातीकरण, निर्वचन विषयक प्रशिक्षण दिए जाते
हैं। इस समय अनुमानतः विश्व के साठ से अधिक देशों के ढाई सौ विश्वविद्यालयों, निकायों में स्नातक और
स्नातकोत्तर स्तर पर अनुवाद प्रशिक्षण दिए जा रहे हैं और हजारो विद्यार्थी इसमें
प्रशिक्षण ले चुके हैं। अनुवाद कला इस समय उन्नतशील रोजगारोन्मुख कौशल है; पेशेवर अनुवादक, दुभाषिया (इण्टरप्रेटर) या अन्य
सम्बद्ध क्षेत्र में दक्ष होने की मंशा से रुचिशील प्रशिक्षु इस तरफ आकर्षित होते
हैं।
इंगलैण्ड में सन् 1960 के दशक में ही विश्वविद्यालय
स्तर पर अनुवचन और अनुवाद में स्नातकोत्तर कार्यक्रम शुरू किए गए। युनिवर्सिटी ऑफ
वेस्ट ऑफ इंगलैण्ड, ब्रिस्टल
में दूर शिक्षा द्वारा अंग्रेजी और अरबी, फ्रांसीसी, जर्मन, इतालवी अथवा स्पैनिश भाषा से सम्बन्धित
अनुवाद में स्नातकोत्तर डिप्लोमा कार्यक्रम चलाया जा रहा है। युनिवर्सिटी ऑफ लीड्स, युनिवर्सिटी ऑफ सर्रे द्वारा
संचालित अनुवाद सम्बन्धी शिक्षा विशेष उल्लेखनीय है। संयुक्त अरब अमीरात
विश्वविद्यालय के सतत शिक्षा केन्द्र द्वारा चलाया जा रहा ‘विधि अनुवाद में प्रोफेशनल
सर्टिफिकेट’ कार्यक्रम
और युनिवर्सिटी ऑफ खार्तुम में अंग्रेजी-फ्रांसीसी-अरबी भाषा में डिप्लोमा एवं
डिग्री की व्यवस्था है। युनिवर्सिटी ऑफ माल्टा में अनुवाद सम्बन्धी कई कार्यक्रम
चलाए जा रहे हैं। मकार्थर इन्स्टीच्यूट ऑफ हायर एजुकेशन, ऑस्ट्रेलिया और हेरिऑट-वॉट
विश्वविद्यालय, एडिनबर्ग
में अनुवचन और अनुवाद में स्नातक कार्यक्रम चलाया जा रहा है। मिडलसैक्स
युनिवर्सिटी, लन्दन
और युनिवर्सिटी ऑफ ईस्ट एन्जलिया,
नाॅर्विच
जैसे संसार के कुछ देशों में ‘साहित्यानुवाद’ पर केन्द्रित कार्यक्रम भी चलाए
जा रहे हैं। इसके अलावा नीदरलैण्ड,
फ्रांस, स्लोवाकिया, आयरलैण्ड, यूनान, बेल्जियम, जर्मन, स्पेन और स्वीडन आदि अनेक यूरोपीय
देशों के अनेक विश्वविद्यालयों में प्रशिक्षुओं को साहित्यानुवाद अध्ययन एवं
अनुवाद का व्यावहारिक प्रशिक्षण देकर कुशल अनुवादक तैयार किए जाते हैं।
भारत में कई सरकारी, गैरसरकारी संस्थाओं द्वारा
व्यवस्थित अनुवाद प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं। हिन्दी में विश्वविद्यालय
स्तर पर अनुवाद प्रशिक्षण का पाठ्यक्रम आरम्भ करने का श्रेय दिल्ली विश्वविद्यालय
को जाता है। डॉ. नगेन्द्र के सत्प्रयास से अंशकालीन अंग्रेजी-हिन्दी सर्टिफिकेट
पाठ्यक्रम सन् 1960-62 में
शुरू किया गया था। बाद के दिनों में केन्द्रीय हिन्दी संस्थान, आगरा द्वारा डिप्लोमा कार्यक्रम
की शुरुआत हुई। केरल विश्वविद्यालय में अनुवाद और प्रशासनिक पत्र-व्यवहार में
अंशकालीन सर्टिफिकेट कार्यक्रम शुरू हुआ। इस समय इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय मुक्त
विश्वविद्यालय में अनुवाद अध्ययन एवं प्रशिक्षण विद्यापीठ में चल रहे अनेक
कार्यक्रमों के अलावा भारत के लगभग तीन दर्जन विश्वविद्यालयों/संस्थाओं में अनुवाद
में एम.ए., एम.फिल., पी-एच.डी., डिग्री, डिप्लोमा, सर्टिफिकेट कोर्स की पढ़ाई हो रही
है। इनमें से 22 में
हिन्दी अनुवाद की पढ़ाई है।
प्रमाणित सत्य है कि अनुवाद-कर्म की स्थिति अब प्राचीन काल
वाली नहीं रह गई है। पहले के चिन्तक, मनीषी समाज-हित की भावना
से अनुवाद करते थे। वे समकालीन समाज के ज्ञानाकुल समुदाय की चेतना जाग्रत करने
हेतु, अधिसंख्य
जनता के ज्ञान-फलक को उद्बुद्ध करने की अभिलाषा से भाषिक अल्पज्ञता का व्यवधान दूर
करने हेतु, जटिल
और दुर्बोध पाठ का भाष्य करते थे। तथ्यतः बहुसंख्य ज्ञानी नागरिकों के बिना सभ्य
और सुसंस्कृत समाज की कल्पना सदा से असम्भव रही है। उपयोक्ताओं को अनूदित पाठ की
सही समझ उपयोग करते हुए ही होती थी। कहते हैं कि आवश्यकता आविष्कार की जननी होती
है, पर उस
काल के उपयोक्ताओं को इस आविष्कार का महत्त्व और परिणति सामने आने के बाद ही समझ
में आता था। बदली हुई परिस्थितियों में अनुवाद के महत्त्व का ऐसा रेखांकन अच्छा लग
रहा है!