देश-दुनिया में आधुनिक हुए लोगों को विज्ञान एवं
प्रौ़द्योगिकी ने बड़ी सुविधा दी है। लोग बहुत खुश हैं। ऐशो-आराम की सारी वस्तुएँ
उनसे मात्र एक फोन-कॉल की दूरी पर है। किन्तु लोग चिन्तित भी बहुत हैं। अक्सर
चिन्ता करते रहते हैं—विज्ञान ने हमारा बहुत कुछ
छीन लिया; कुछ भी पहले जैसा नहीं रह गया; सामाजिकता खत्म हो गई; मनुष्य का
नैतिक पतन हो गया; लोग मशीनवत् हो गए; मानवीय सरोकार बेमानी हो गया—फिजूल के घरियाली आँसू बहाते रहते हैं। उन्हें अपने किए पर
पश्चाताप करने की फुरसत तो मिलती नहीं। बिना मतलब विज्ञान को कोसते रहते हैं। वे
याद ही नहीं करते कि विज्ञान ने उनका कुछ भी नहीं छीना; किसी वैज्ञानिक उपकरण
ने उन्हें अपनी विरासत से मुँह मोड़ने हेतु विवश नहीं किया। मान्य परिभाषा
के अनुसार किसी विषय के क्रमबद्ध ज्ञान को विज्ञान कहते हैं। परिकल्पना एवं प्रयोग द्वारा इसमें तथ्य, सिद्धान्त और तरीकों को व्यवस्थित किया
जाता है। इस अर्थ में विज्ञान स्वयं में एक कला है। क्योंकि मनुष्य के शारीरिक
एवं बौद्धिक कौशल से किया गया हर सृजन कला होता है। विज्ञान की दिशा में आगे
बढ़ते हर कदम पर कौशल की जरूरत होती है। इस हाल में कला-समूह के विलुप्तीकरण का
दोष विज्ञान पर थोपना कहाँ तक समीचीन है! किसी वस्तु की प्रयुक्ति का मानवीय
विवेक तार्किक न हो तो विज्ञान इसमें क्या कर सकता है? अतिरिक्त सुविधा के
आखेट में लोग लगातार अपनी परम्परा और नैतिक सरोकार से कटते गए और अब, जब सब कुछ
हाथ से निकल गया, तो हाथ मलने के अलावा उनके पास कोई रास्ता नहीं रह गया है।
लोग अक्सर आरोप लगाते हैं कि वैज्ञानिक उपलब्धियों
के कारण ग्राम्य-कलाएँ नष्ट हो गईं। तथ्य तो है कि आधुनिक और सुसभ्य होने की
आपाधापी में आज गाँव से सभी पारम्परिक कलाएँ लुप्त हो गई हैं। किन्तु प्राथमिक
सचाई तो यह है कि समाज से जीवन जीने की कला लुप्त हो गई है। सामाजिक जीवन जीने की
पहली शर्त तो उनका मानवीय सरोकार है! वे उसी में ईमानदार नहीं हैं, फिर चरखा, छींका
(सिकहर), बियनी, खटिया, टोकड़ी, रस्सी बटने का टेरुआ, मूँज की रस्सी, पशुओं
के पगहे, मुखारी, जाबी, हेंगा, काँड़ी, ढेकी, करीन, कुश-पटपटी की चटाई, सुजनी, कथरी...आदि
लुप्त हो गई, तो कौन-सा अनर्थ हो गया!
पर्यावरणविदों के बीच एक दन्तकथा प्रचलित है कि किसी
खास समाज के लोग जीवन्त पेड़ को नहीं काटते; जीवन-व्यवस्था के संचालन में कोई
पेड़ बाधक होता है, तो लोग सामूहिक रूप से उस पेड़ के पास जाते हैं, धिक्कार-तिरस्कार
के साथ उस पेड़ की फजीहत करते हैं; और वापस आ जाते हैं। आगे के दो चार दिनों में
वह पेड़ सूख जाता है; फिर लोग उसे काटकर हटा देते हैं। इस टोटके में सम्भव है कि
किसी को अन्धविश्वास की बू लगे। पर, बात यहाँ सार्थकता की है। संकेत यह है कि
जड़ होने के बावजूद पेड़ जीवन्त है; सामाजिक जीवन में अपने सम्मान और सार्थकता
का लोप देखकर वह प्राण त्याग देता है, सूख जाता है। ग्राम्य-कला की भी यही दशा
है। नागरिक-जीवन में जब उसका सम्मान और सार्थकता बची नहीं रही, तब उसे जिलाकर
कौन रखे? बिसुखी हुई गाय को हरी घास तो किसान भी नहीं खिलाते।
इन कलाओं का जन्म तथ्यत: ग्राम्य-जीवन की जरूरतों
के अनुसार ही हुआ। कलाकारों ने अपने कौशल को समाज में ही पुख्ता किया।
पीढ़ी-दर-पीढ़ी इसकी दीक्षा मिलती गई। अनुभव और प्रयोजन के अनुसार इनमें परिपक्वता
आती गई। अपने उद्भव-काल से ये कलाएँ सामाजिक-जीवन में गरिमा पाती रहीं, कला एवं
कलाकारों का सम्मान होता रहा। कलाएँ सार्थक और उपयोगी बनी रहीं। उल्लेखनीय है कि
जीवन-यापन की जरूरतों के अतिरिक्त ये कलाएँ सामाजिक सौहार्द एवं मानवीय मूल्य
की भी रक्षा करती थीं। जिनके पास इन कलाओं में निपुणता होती थी, दूसरे वर्ग के
लोग उनका उस कारण भी महत्त्व देते थे। जीवन-यापन में सामूहिकता रहती थी। हर व्यक्ति
को अपने जीवन में दूसरे व्यवसाय के लोगों की अनिवार्यता दिखती थी।
विगत तीन ही दशक में ग्राम्य-कलाओं के उत्पाद्य
भारी मात्रा में सामाजिक जीवन के लिए त्याज्य हो गए हैं। गौरतलब है कि सामाजिक
जीवन के मानवीय सरोकार, भाषिक ऊर्वरता एवं जनपदीय संस्कृति पर इसका गहरा असर
हुआ है। दीपावली के अगले दिन गोवर्द्धन-पूजा अथवा सुकराती पर्व होता है। किसानी-संस्कृति
में पशु-धन एवं कृषि-कर्म के औजारों का पूजन अत्यन्त महत्त्वपूर्ण माना जाता
है। प्रतिवर्ष इस दिन किसान अपने-अपने मवेशियों के पगहे बदलते हैं। नए-नए
रंगारंग पगहे पहने हुए पशुधन के रूप-रंग इस दिन देखते ही बनते थे। इस दिन की
तैयारी में किसान दशहरे के तत्काल बाद से लग जाते थे। मवेशियों की खूबसूरती में
चार चाँद लगाने का यह अनोखा उत्सव होता था। गहने जैसी दिखने वाली किसक-किसिम
की रस्सियाँ बनाई जाती थीं, पूरा किसान परिवार सुतली और रस्सियों में रंग
जमाते हुए विभोर रहता था। रस्सियों के उन गहनों का एक से एक नाम होता था—गरदामी, मुखारी, नाथ, रास, ठेका, पगहा, गुल्ठी, जाबी, कराम,
लदहा, बरहा...आदि। ये सारे सुख-सौरभ और उत्सवधर्मिता प्लास्टिक की बनी-बनाई
रस्सी निगल गई। मेरे गाँव में मिसाल दी जाती थी कि कपिलेश्वर भाई जो पचमेरा
बटते हैं; ओऽऽहोऽऽहो! तीन हाथ की लम्बी रस्सी खड़ी कर देते हैं। अब न ऐसे कलाकार
होते, न कलाकार का सम्मान होता। यही हाल सुजनी और चटाई का था। पटपटी और मोथी से
चटाइयाँ बनाई जाती थीं, आकार-प्रकार एवं बुनने के तरीके से उनके नाम बदलते थे—चटकुनी, चटाई, गोनरि। मूँज, कुश, साबे, डाभी, कास, पटेर,
मोथी, सीकी के उपयोग से एक से एक टोकड़ियाँ बनाई जाती थीं—ढाकी, पथिया, धामी, भौकी, दौड़ी, मौनी, पौती... आकार के
अनुसार इनकी सामग्री एवं बुनावट बदलती थी। रूप-स्वरूप देखते ही बनता था। रचना
शुरू करने से पूर्व ही कलाकार उसका उद्देश्य घोषित कर देते थे कि यह किसके लिए
बनाया जा रहा है। इस पूरी प्रक्रिया में कलाकार और कला के उपयोक्ता का स्नेह-सूत्र
लगातार संचालित रहता था। रेडीमेड प्लास्टिक बास्केट ने इन कलाओं को विस्थापित
कर दिया, अपमानित कलाएँ त्याज्य हो गईं और संस्कृति के साथ-साथ भाषा को भी
आहत कर गईं। आज की पीढ़ी के बच्चे अब इन शब्दों के अर्थ नहीं समझते। जिन
प्राकृतिक पदार्थों एवं घरेलू औजारों का इनमें उपयोग होता था; आज के बच्चे उन्हें
जानते तक नहीं। खटिया और मचान—किसानी चौपाल के लिए अत्यन्त
उपयोगी थे, जो अब पाए नहीं जाते।
गाँवों में अक्सर फूस के घर होते थे। उसके मुख्य
कारीगर को 'घरामी' कहा जाता था। वे निरक्षर कारीगर कहीं से इंजीनियरिंग पढ़कर तो
नहीं आते थे, पर उनका ज्यामितीय अभिज्ञान इतना सधा होता था कि दूर-दूर के
गाँवों तक उनकी ख्याति फैली रहती थी। अमुक कारीगर द्वारा घर छवाया जाए तो पाँच
बरस तक घर में बारिस की बूँद न टपके!
ताड़ के पत्तों से चटाई बनती थी, पंखा बनता था, बियनी
बनती थी; बनावट के अनुसार इनके नाम और उपयोग की पद्धति निर्धारित होती थी। प्लास्टिक
के पंखे ने इन सबको विस्थापित कर दिया।...
असंख्य उदाहरण हैं। अब उपभोक्ता की अमीरी ने इन
कला-रूपों को विस्थपित किया, या बाजार के दबाव ने, या कि सामान के टिकाऊपन
ने, या फिर आधुनिकता की आँधी ने---कहना मुश्किल है, किन्तु इतना तय है कि
इस पूरी प्रक्रिया ने केवल मनुष्य को आधुनिक ही बनाया, केवल कलाओं को आहत ही नहीं
किया, केवल संस्कृति ही क्षरित नहीं हुई; हमारी भाषा का बहुत बड़ा नुकसान हुआ।
सामाजिक सौहार्द बुरी तरह क्षतिग्रस्त हुई है। इन क्षतियों की भरपाई असम्भव
है। इससे गाँव भदेसपन समाप्त हुआ है, जो किसी न किसी हद तक भरतीयता का प्रतीक
था। अब ओहाड़ लगी बैलगाड़ी अथवा गुड्डा-गुड्डी के विवाह कराने का खेल हमारे समाज
के बच्चे सिनेमा, संग्रहालय या किताबों में ही देखेंगे।