वस्तु एवं विचार के विनिमय
हेतु मानव सभ्यता के प्रारम्भ से ही अनुवाद का प्रयोजन होने लगा था। यहाँ अनुवाद
के उस व्यापक अर्थ की बात की जा रही है, जिसमें मनुष्य मौलिक समझकर जो कुछ
रचता, करता, बोलता, या लिखता है; उनमें से कुछ भी मौलिक नहीं होता; सारा कुछ
उनके पूर्व-पाठ का अनुवाद होता है, अनुकरण होता है। प्राथमिक स्तर पर कर्ता द्वारा
जो कुछ सोचा गया, वह मौलिक होता है; और उसे भौतिक स्वरूप देने के लिए जो कुछ
किया जाता है, वह उसके सोच-समझ का अनुवाद होता है। भारत में, और विश्व की सभी
भाषाओं में अनुवाद की प्रारम्भिक स्थिति यही रही है।
इस तरह प्राचीन-काल में ही
वस्तु एवं विचार के विनिमय हेतु समाजहित में आविष्कृत अनुवाद का भरपूर
उपयोग ज्ञान एवं धर्म के सहज संचार जैसे पुनीत कार्य में हुआ। आगे चलकर यह किसी
खास भाषा के स्थगित को पाठ को दूसरी भाषा में पुनरुज्जीवन देने लगा और वृहत्तर
पाठक समुदाय में उसका प्रवेश कराने लगा। फिर समाज-व्यवस्था और शासन-तन्त्र के
सफल संचालन में इसने अपनी अनिवार्य भूमिका अदा की। इतिहास गवाह है कि अतीत-काल
के समस्त मनीषी अपने नैष्ठिक योगदान से इसकी उक्त गरिमा का अनुरक्षण करते
रहे। हर दौर के भाष्यकारों, टीकाकारों, अनुवादकों ने अपने नैतिक दायित्व और
सामाजिक सरोकार के अधीन ही इस निष्ठा का परिचय दिया है। लक्षित भाषा के
प्रयोक्ताओं के बीच अनूदित पाठ की सम्प्रेषणीयता अनुवाद की प्राथमिक और
सर्वाधिक प्रयोजनीयता मानी गई है। पाठ सम्प्रेषणीय न हो, तो वह अनुवाद निष्प्रयोज
माना जाएगा। मानव-सभ्यता के किसी दौर में निष्प्रयोजन कर्म को कार्य मानने की
परम्परा नहीं रही है।
भारतीय अनुवाद उद्यम की इस अत्यन्त
प्राचीन परम्परा का सघन उपयोग उपनिषद काल से ही ज्ञानदान एवं समाज-व्यवस्था
के संचालन हेतु होता आया है। भाष्य, टीका, व्युत्पत्ति, विश्लेषण, व्याख्या,
अनुवचन, अनुकथन...तमाम विधियों से भारतीय चिन्तक ज्ञान, धर्म, और विचार की
अभिव्यक्ति करते आए हैं। भारतीय ज्ञान के ध्वजधारीगण अपने-अपने समय के नागरिकों
के भाषा-ज्ञान और ग्रहण-शक्ति के अनुकूल सरल भाषा में शास्त्र-पुराणों का
पुनर्कथन या आत्मसातीकरण (एप्रोप्रिएशन) करते रहे हैं। रामचरितमानस या
कि विभिन्न भारतीय भाषाओं में रचित रामकथाओं, कृष्णकथाओं के पुनर्कथन में
अनुवाद का यह उद्यम देखा जा सकता है।
उल्लेखनीय है कि राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय
स्तर पर उन्नीसवी सदी से पूर्व विपुल अनुवाद-कार्य हुए। उन सभी अनुवादकों और
अनुवाद करानेवाले शासकों की धारणा अत्यन्त पवित्र और स्पष्ट रहती थी। एक
सुबुद्ध नागरिक होने के नाते वे दुनिया की किसी भाषा में उपजे ज्ञान को जनसुलभ
बनाना अपना दायित्व समझते थे। प्रसिद्ध भारतीय ग्रन्थ 'पंचतन्त्र' का
आठवी सदी में अरबी में अनुवाद और फिर दुनिया की अन्य भाषाओं तक उसकी पहुँच, इसी
बात का सूचक है। गौरतलब है कि उन दिनों अनुवाद-कार्य आज की तरह धनार्जन का साधन
नहीं था। यश:कीर्ति की लालसा भी अनुवादकों में उन दिनों उग्र नहीं थी। अनुवदकर्मी
एक तरह के स्वनियोजित समाजसेवी होते थे। अपना दायित्व-फलक स्वयं तय करते थे,
और उसका अनुपालन करते थे। प्राचीन और मध्यकालीन भारतीय अनुवाद-चिन्तकों पर
चर्चा के विस्तार से तत्काल बचकर आगे निकलें तो आधुनिक काल में आकर देखते हैं
कि भाषा-साहित्य की समृद्धि का विराट दायित्व-वहन करते हुए भी महावीर
प्रसाद द्विवेदी ने सन् 1889-1907 तक के अठारह वर्षों में चौदह महत्त्वपूर्ण
कृतियों के अनुवाद किए; जिनमें 'शिक्षा' और 'स्वाधीनता' (सन् 1906 में अनूदित हर्बर्ट स्पेंसर की कृति 'एज्युकेशन' और सन् 1907 में अनूदित जॉन स्टुअर्ट मिल की कृति 'ऑन लिबर्टी') इस कारण भी विशेष महत्त्व
की है कि स्वाधीनता आन्दोलन में इन दोनो कृतियों की विशेष भूमिका रही है।
सन् 1895-99 के बीच जर्मन में लिखित और सन् 1901 में अंग्रेजी में प्रकाशित
अर्न्स्ट हैकल की कृति द रिड्ल्स ऑफ युनिवर्स का विश्वप्रपंच
शीर्षक से रामचन्द्र शुक्ल द्वारा किए गए अनुवाद का भी ऐसा ही महत्त्व है। उल्लेखनीय
है कि प्राणिविज्ञान की इस कृति का अनुवाद आचार्य शुक्ल ने उस समय किया, जब
हिन्दी में कोई वैज्ञानिक शब्दकोश नहीं था। आचार्य शुक्ल ने स्वयं उसके लिए
शब्द गढ़े। सन् 1880 में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र द्वारा दुर्लभ बन्धु (मर्चेण्ट
आफ वेनिस, शेक्सपियर) शीर्षक से अनूदित कृति को भी इसी दृष्टि से देखा जा
सकता है।
भारत में समाज-हितैषी
अनुवाद-कर्म की यह पुनीत परम्परा प्राचीन काल से भली-भाँति चली आ रही थी। मुगलों
के आगमन के बाद भी यह कार्य खूब फलता-फूलता नजर आया। बल्कि अकबर के शासन-काल में
तो इसका भरपूर विकास हुआ। दाराशुकोह के अनुवादकीय अवदान को तो पूरा जगत नमन करता
है। शासन के शिकारी अंग्रेजों ने भारत आकर इसकी पवित्रता भंग कर दी। हुआ यूँ, कि
02 फरवरी, 1835 को ब्रिटिश
पार्लियामेण्ट में लॉर्ड मेकॉले ने वक्तव्य दिया कि ''मैंने पूरे भारत का
भ्रमण किया, लेकिन कहीं भी ऐसा आदमी नहीं मिला,
जो भिखारी या चोर हो।
मैंने पाया कि यहाँ के लोग उच्च नैतिक मूल्यों एवं अत्यधिक क्षमता के धनी हैं, जिससे
मुझे नहीं लगता कि हम कभी इस देश को जीत पाएँगे। जब तक इसके मेरुदण्ड माने
जानेवाले आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक विरासत को न तोड़ा जाए,
तब तक हम इस देश पर अपना
शासन जमा नहीं पाएँगे। अतः मेरा प्रस्ताव है कि इसके प्राचीन एवं परम्परागत शिक्षा
प्रणाली और संस्कृति को बदला जाए, क्योंकि जब भारत के लोग यह अनुभव करेंगे
कि यह शिक्षा-प्रणाली और संस्कृति आयातित हैं,
हमारी भाषा और संस्कृति
की तुलना में अंग्रेजी अच्छी एवं महान् है, तब वे अपना स्वाभिमान खो बैठेंगे और
स्थानीय संस्कृति से विमुख हो जाएँगे। अन्ततः वे वैसे बन जाएँगे, जैसा
हम चाहते हैं।''
अब अंग्रेजों की चिन्ता भारत के आध्यात्मिक
एवं सांस्कृतिक विरासत का मेरुदण्ड तोड़ने की ओर अग्रसर हुई। इसके लिए उनके समक्ष
एक मात्र रास्ता अनुवाद था। अनुवाद के जरिए ही वे हमारे आध्यात्मिक धरोहर को
जान सकते थे। उन्होंने आनन-फानन हमारे प्राचीन ग्रन्थों के दूषित अनुवाद करवाए,
जाहिर है कि उनके इस कुटिल कार्य में हमारे ही देश के आत्महीन नागरिक शामिल
थे। और, उस दूषित अनुवाद के अवांछित उदाहरण सामने रख कर वे भारतीय जनता के मन
में हीन-ग्रन्थि भरने लगे। महावीर प्रसाद द्विवेदी, रामचन्द्र शुक्ल, भारतेन्दु
हरिश्चन्द्र जैसे मनीषियों द्वारा अनूदित यूरोपीय साहित्य ऐसे ही समय में
कारगर साबित हुआ। भारतीय नागरिक का हीनताबोध मिटाकर, उनके आहत मनोबल को सन्तुलित
कर, उन्हें गर्वोन्नत करने में उन अनूदित कृतियों का बड़ा योगदान रहा। ज्ञान
एवं संस्कृतियों के पारदर्शी प्रसार में सदियों से क्रियाशील अनुवाद-कर्म यहाँ
आकर अंग्रेजों की शासकीय दुर्वृत्ति के कारण दूषित होने लगी, जिसका मुँहतोड़
जवाब भारतीय चिन्तकों ने दे तो दिया, पर यहाँ से अनुवाद-कर्म का दायित्व बढ़
गया, उत्तरोत्तर बढ़ता ही गया।
ज्ञान और विचार के प्रचारार्थ सर्वमान्य
अत्यन्त उपयोगी साधन 'अनुवाद' की पवित्रता और निश्छलता भंग हुई और 'पॉलिटिक्स
ऑफ ट्रान्सलेशन' उग्र हो गई है। ध्यातव्य है कि इस पदबन्ध का समानार्थी
'अनुवाद की राजनीति' नहीं हो सकता। इसे अनुवाद की 'पॉलिटिक्स' कहना ही उचित
होगा। या विद्वत्जन स्वीकार करें तो इसके लिए अनुवाद का पार्श्वपक्ष/अन्तर्लक्ष्य/राजनय
जैसा कोई पदबन्ध निर्धारित किया जा सकता है; क्योंकि अनुवाद-धारणा या
अनुवाद-उद्देश्य जैसा पदबन्ध सारा कुछ तो ध्वनित कर देता है, उसकी कुटिलता और
जटिलता को इंगित नहीं करता। जाहिर है कि इन जटिलताओं के कारण अनुवादकों का
दायित्व बहुत बढ़ गया। स्रोत-पाठ के शब्दों का सही विकल्प लक्ष्य-पाठ में तय
करते समय उन्हें बहुत सावधान रहने की आवश्यकता होने लगी। ऐसा इस कारण भी हुआ कि
यहाँ तक आते-आते अनूदित पाठ के अर्थदोहन की मानवीय प्रवृत्ति भी अत्यन्त जटिल
और कुटिल हो गई। लक्षित उद्देश्य की पूर्ति हेतु ऐसे भाष्यकारों ने रोचक
तरकीबों का आविष्कार किया। वे विमर्श एवं व्याख्या की सूक्ष्म पद्धति के
नाम पर पंक्तियों, पदों, शब्दों, विरामचिह्नों, साँस की रुकावटों की फाँक में
फँसे अर्थ दूहने लगे। उनमें ऐसी-ऐसी व्यंजनाएँ डालने लगे, जिनकी कल्पना अनुवादक
ने सपने में भी न की होगी।
अवान्तर कामनाओं की पूर्ति के उद्देश्य से अपनाई गई उस पद्धति को वे भाष्यकार विचार-व्यवस्था
की अधुनातन और सूक्ष्मतर दृष्टि बताते गए। ब्रिटिश सम्पोषित भारतीय अनुवाद
में उपजी और विकसित हुई इस दुर्नीति से नुकसान तो बहुत हुआ, पर लाभ भी कम नहीं
हुआ। आगे के विद्वानों की व्याख्या-पद्धति विकसित हुई, अनुवादकों के कौशल
परिष्कृत हुए, और आगे के दिनों में भारतीय मनीषियों को उस दुर्नीति से बड़ी प्रेरणा
मिली। बड़े मनोयोग से उन लोगों ने भारतीय अनुवाद-परम्परा को सम्पुष्ट किया।
भारतीय स्वाधीनता के कुछ वर्ष पूर्व से
ही, अर्थात् द्वितीय विश्वयुद्ध के तत्काल बाद से ही अन्तर्राष्ट्रीय
कूटनीतिक सम्बन्धों में अनुवाद की महती भूमिका दिखने लगी थी। अनुवादकों का
दायित्व प्रबल हो उठा था, समानार्थी शब्दों के सही विकल्प और भाषा-संरचना के
उपयुक्त फलक तय करने की सावधानी अनिवार्य हो गई थी। अर्थ की विराट सम्भावना
एवं भाषिक-प्रयुक्तियों की ध्वन्यार्थमूलक संवेदनशीलता के कारण भाष्य और
टीका से काम चलना मुश्किल होने लगा था। कानूनी दाँव-पेंच, व्यापारिक करार और
कूटनीतिक वक्तव्य में कई प्रतीकार्थ व्यवधान या अर्थबहुलता उत्पन्न करने लगे
थे। फलस्वरूप शब्दार्थ से अधिक प्रबल कथन का ध्येय हो गया था। विदित है कि स्थानीय
भाषिक संस्कार के कारण हर भाषा में शब्द-प्रयोग का खास ध्वन्यार्थ होता है,
भौगोलिक परिवेश की भिन्नता और प्रयुक्तियों की स्थानीयता के कारण शब्दों
में अक्सर विशेषार्थ भर जाते हैं, सारानुवाद या भावार्थ वहाँ काम नहीं आता। साहित्यिक
पाठ के अनुवाद में तो यह जटिलता खास तौर पर बढ़ जाती है। भारतीय अनुवाद-परम्परा प्राचीन
काल से दायित्वबोध-सम्पन्न अनुवादकों एवं अनुवाद-चिन्तकों के ऐसे ही अनुराग
से सम्पोषित है, और अपनी निरन्तर गर्वोन्नत रहता आया है। अनुसन्धित्सु लोग
इस परम्परा की दीर्घ शृंखला की पड़ताल हेतु उद्यमशील होएँ तो उन्हें स्पष्ट दिखेगा।
अनुवाद-कर्म की यह
संवेदनशीलता दुनिया
भर की सभी भाषाओं में सदा पूजित होती रही; पर, जब से छापाखाने का विस्तार हुआ, व्यवसायपरक
मुद्रण-व्यवस्था बढ़ी, स्वातन्त्र्योत्तर काल में भारत में अनुवाद-क्षमता के बूते
धनार्जन की सुविधा बढ़ी, अनुवादकों की यश:लिप्सा उग्र हुई...भारतीय परिदृश्य
में अनुवाद-कार्य में दायित्वहीनता भी उसी अनुपात में बढ़ी। बहुलांश में दिख
रही इधर की अनुवादकीय लापरवाही दुखद है। साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली द्वारा
प्रति वर्ष विभिन्न भारतीय भाषाओं के बाइस अनुवादकों को पुरस्कृत किया जाता
है। नेशनल बुक ट्रस्ट, इण्डिया प्रति वर्ष हिन्दी में तीन-चार दर्जन के
आसपास अनूदित पुस्तकें प्रकाशित करता है। अन्य भारतीय भाषाओं में भी वहाँ से
अनूदित पुस्तकें प्रकाशित होती हैं। इनके अलावा भी कई सरकारी-गैरसरकारी प्रकाशन
संस्थानों से बेशुमार अनूदित पुस्तकें छपती हैं। अनुमान सहज है कि प्रति वर्ष
भारत में हिन्दी में दो सौ से अधिक अनूदित पुस्तकें छपती होंगीं। पर, हासिल
कुछ नहीं होता। रोजगार तो सबका चल जाता है, पर किताब का जो वास्तविक अर्थ
है--पाठकों के मन-मिजाज में उतर जाना--वही भर नहीं होता। गैरजिम्मेदार
अनुवादकों से अनुवाद करवाने और गैरजिम्मेदार सम्पादक से उसके छापे जाने की संस्तुति
लेने के कारण ही इस तरह के दायित्वहीन कार्य सामने आते हैं।
तथ्य है कि राजभाषा के रूप
में हिन्दी के अधिग्रहण के बाद से अनुवाद-कौशल के सहारे धनार्जन के अवसर स्पष्ट
परिलक्षित होने लगे। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के अवदान, अन्तर्राष्ट्रीय कूटनीतिक
सम्बन्धों के प्रयोजन, विश्वग्राम की अवधारणा, भूमण्डलीकरण की धारणा के विस्तार,
ज्ञान एवं विचार के वैश्विक संचार...आदि कारणों से अनुवाद-कर्म का महत्त्व धनार्जन
के स्रोत के रूप में प्रबल हुआ। सरकारी-गैरसरकारी कार्यालयों, संचार माध्यमों, पर्यटन,
व्यापार, शिक्षण, प्रकाशन-उद्योग...सभी क्षेत्रों में अनुवादकों की माँग बढ़ी। फलस्वरूप
विगत वर्षों में अनुवाद के हुनर की पहचान कमाई के साधन के रूप में हुई। इसके कई
कारण हैं--शिक्षण, संचार-तन्त्र और व्यापार के क्षेत्र में बीते तीन दशकों में
आए बेशुमार विस्तार से अनुवाद का सहयोग अनिवार्य हो गया। विज्ञान के अवदान से
इन क्षेत्रों में सम्भावनाएँ इतनी बढ़ीं कि ज्ञान, संचार और व्यापार के
छोटे-छोटे अंशों में विशेषज्ञता की आवश्यकता होने लगी। मनुष्य की यही आवश्यकता
कभी अनुवाद के आविष्कार जननी हुई थी; इधर आकर इसी आवश्यकता ने अनुवाद की उपयोगिता
बढ़ाई; और आज अनुवाद-उद्यम का उर्वर बाजार खूब फलता-फूलता नजर आ रहा है। अंग्रेजी
समेत विभिन्न भारतीय भाषाओं से हिन्दी में बड़े पैमाने पर अनुवाद हो रहे हैं,
बड़ी संख्या में अनूदित किताबें छप रही हैं, बिक भी रही हैं। हिन्दी प्रकाशन
के पिछले छह दशकों का जायजा लें तो कुल प्रकाशित सामग्री में अनूदित पाठ का एक
बड़ा हिस्सा मिलेगा। इनमें साहित्यिक एवं कार्यालयी पाठ के अलावा पाठ्य-पुस्तकों
के अनुवाद भी शामिल हैं। इस समय जीवन-व्यवस्था और समाज-व्यवस्था की कोई भी
शाखा अनुवाद के अवदान से मुक्त नहीं है। अनुवाद के बिना शोध, शिक्षण,
ज्ञानार्जन का सम्पूर्ण क्षेत्र विकल होता दिखेगा; नवसंचार-तन्त्र की साँसें
उखड़ती दिखेंगी; व्यापार एवं प्रकाशन-उद्योग की टाँगें लड़खड़ाती दिखेंगी, सारे
व्यापारी एवं प्रकाशक पिछड़े हुए धावक की तरह किसी कोने में दुबके मिलेंगे;
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक-व्यापारिक सम्बन्धों का कोई अस्तित्व नहीं
होगा; दुभाषियों के सहयोग के बिना पर्यटन-व्यपार निष्प्राण हो जाएगा।...पर विडम्बना
देखें कि अनुवाद-कर्म के अधिकांश स्वघोषित सेनानियों की नजर में अनुवाद की इस
महती गरिमा का कोई मूल्य नहीं है। वे निरन्तर इस पुण्यशील कार्य की मर्यादा
को रौंदते नजर आते हैं। अनुवाद के मूल ध्येय का तिरस्कार करते हुए केवल अपने
धनार्जन के लिए लोलुप दिखते हैं।
उन्हें मालूम होना चाहिए
कि सम्प्रेषणीयता के बिना अनुवाद का उद्देश्य खण्डित और लांछित होगा। प्रारम्भिक
दौर में अनुवाद-कार्य बेशक व्यवसाय का साधन न बना हो, पर शासन-तन्त्र अथवा समाज-व्यवस्था
निश्चय ही उनकी पुण्याई के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते थे। यश, अर्थ की कुछ
न कुछ वृत्ति उन्हें अवश्य प्राप्त होती थी। अपवादस्वरूप कबीर, सूर, तुलसी
जैसे महान लोगों के नाम भी हमारे समक्ष हैं। पर आजादी बाद के दो दशकों तक के
अनुवाद-सिद्ध मनीषियों में से किसी ने अधिक धन उगाहने के लोभ में अपने कर्म से
समझौता नहीं किया। जबकि आज के अनुवादक बहुधा अपने उद्देश्यों से भटके हुए होते
हैं। अनुवाद से उनका कोई वैचारिक लगाव नहीं होता, उनका प्राथमिक और एक मात्र लक्ष्य
धनार्जन होता है, वे इस क्षेत्र में आते ही हैं पैसा बनाने के लिए, सम्मान/पुरस्कार
बटोरने के लिए। उनके लिए अनुवाद करने, मछली बेचने, टैक्सी चलाने, लॉटरी टिकट
बेचने...सारे कामों का मूल्य बराबर है। हर व्यापार में पैसा बनता है।
अनुवाद-कर्म की विलक्षणता अथवा गम्भीरता का उनकी नजर में अलग से कोई मूल्य नहीं
होता। अनुवादक की नैतिकता का उनकी नजर में कोई अर्थ नहीं है।
हर अनुवादक को इस नैतिक
सवाल पर विचार करने की जरूरत है कि वे अनुवाद करते क्यों हैं? उनका उद्देश्य
केवल धनार्जन रहता है, या इस कर्म का कोई नैतिक दायित्व भी वे समझते हैं? मानव-सभ्यता
के प्रारम्भिक दौर से अब तक के व्यवस्था-संचालन में अनुवाद की भूमिका जैसे
अकादेमिक बहस में गए बगैर यहाँ केवल उसके तात्कालिक प्रयोजन की बात करें--कि किसी
पाठ के अनुवाद की जरूरत आखिरकार क्यों होती है?...सहज जबाब सामने आता है कि
देश-दुनिया की किसी भाषा में ज्ञान की कोई बात कही गई है, जिसकी जानकारी उन
लोगों को भी हो, जिन्हें वह भाषा नहीं आती। तब तो हर अनुवादक, अनुवाद-सम्पादक
और अनुवाद-प्रकाशक का दायित्व बनता है कि वे अनूदित पाठ को बोधगम्य बनाकर
प्रस्तुत करें! किन्तु व्यावहारिक तौर पर ऐसा होता नहीं। देखा जा रहा है कि
अनुवाद की अपठनीयता और अबूझपन के कारण उपयोक्ता अन्तत: उसके अंग्रेजी पाठ की ओर
रुख करते हैं। जब पाठ समझ में ही न आए, तो आखिरकार ऐसे अनुवाद का प्रयोजन क्या
है! कार्यालयी अनुवाद हो, तकनीकी अनुवाद हो, साहित्यिक अनुवाद हो, ज्ञानात्मक
साहित्य का अनुवाद हो...हिन्दी के उपयोक्ताओं का काम उपलब्ध अनुवादों से भली-भाँति
नहीं चलता, मूलभाषा का सहारा लिए बिना वे पाठ के मर्म तक पहुँच ही नहीं पाते। हार-थककर
उन्हें मूल पाठ के शरण में जाना ही पड़ता है। जाहिर है कि अंग्रेजी पढ़कर समझ
लेनेवालों के लिए किसी अंग्रेजी पाठ का हिन्दी अनुवाद नहीं होता। यह अनुवाद
उनके लिए होता है, जिसका अंग्रेजी-ज्ञान तंग होता है। फिर ये अनुवादक, क्या
काम निपटाने के लिए अनुवाद हैं? हवाई जहाज की हर सीट के पीछे लिखा रहता है--'प्लीज
फासेन द सीट बेल्ट व्हाइल सीटिंग।' इसका हिन्दी में अनुवाद किया गया है--'कृपया
बैठे हुए कुर्सी की पेटी बाँधे रखिए!' अब इसके अनुवादक ही बता सकेंगे कि उन्होंने
क्या और क्यों यह अनुवाद किया है?
यह तो कार्यालयी अनुवाद का
मात्र एक उदाहरण है; ऐसे कई उदाहरण लिए जा सकते हैं। मानविकी, समाजशास्त्र,
संचार-तन्त्र और ज्ञानात्मक साहित्य के अनुवाद में तो इस दायित्वहीनता का
साम्राज्य छाया हुआ है। उन्हें इस बात का कतई इल्म नहीं होता कि ऐसे भ्रष्ट
अनुवाद द्वारा वे एक साथ कितने-कितने अपराध करते हैं। पहला अपराध तो यह है कि
उसके उपयोक्ता पुस्तक खरीदने में अपना धन लगाते है, पढ़ने में अपना श्रम एवं समय
लगाते हैं, पर लाभान्वित नहीं हो पाते। अर्थात उनके साथ छल होता है। यह एक किस्म
की ठगी है। इस अनुभव के कारण भविष्य में वे हिन्दी की किताबें खरीदने और
पढ़ने से कतराएँगे, जो हिन्दी और पठन-रुचि--दोनो के साथ अन्याय है।
दूसरा अपराध है कि दूसरी
भाषा से हिन्दी में अनूदित एक बड़े रचनाकार के परपुर-प्रवेश का समुचित स्वागत
नहीं होता; हिन्दी के पाठक उनके रचनात्मक उद्यम और सामाजिक सरोकार के मर्म तक नहीं
जा पाते। लिहाजा हिन्दी समाज की समझ और सहृदयता पर अनावश्यक आरोप जड़ दिया
जाता है। तीसरा अपराध है कि इस दायित्वहीन हिन्दी अनुवाद के कारण बहुभाषिक
भारतीय अनुवाद की गुणवत्ता और विश्वसनीयता खण्डित होती है। चूँकि कई स्थितियों
में इन दिनों हिन्दी सेतु-भाषा का काम करने लगी है। कई भारतीय भाषाओं में सीधे
अनुवाद हेतु आजकल अनुवादक नहीं मिलते; कन्नड़ से असमिया, या तमिल से डोगरी, या
मलयालम से ओड़िया में सीधे अनुवाद करनेवालों का नितान्त अभाव है, अन्य भाषाओं
में भी यही हाल है। ऐसे में हिन्दी अनुवाद सेतु-भाषा के रूप में काम करता है।
साहित्य अकादेमी, नेशनल बुक ट्रस्ट, प्रकाशन विभाग जैसे सरकारी संस्थानों के
साथ-साथ कई गैरसरकारी प्रकाशन संस्थान भी कई भाषाओं में प्रकाशन का कार्य करते
हैं, उन्हें ऐसी विसंगतियों का सामना आए दिन करना पड़ता होगा। अब यदि सेतु-भाषा
स्वयं ही अपनी सम्प्रेषणीयता के लिए दाँत निपोड़ रहा हो, तो उस पाठ का अगली
भाषा में प्रवेश कितना अभद्र होगा, यह विचारणीय है। चौथा अपराध विश्वविद्यालयों
की पुस्तकालयों में ऐसी पुस्तकों की उपस्थिति का है। चाहे अनचाहे ये पुस्तकें
वहाँ पहुँचकर भारत के युवा-मानस को खीज से भर देती हैं। इससे शोध की दिशाएँ भी
आहत होती हैं। पाँचवाँ अपराध प्रकाशन-उद्योग के सामाजिक सरोकार का है। अनुवादकों
की ऐसी दायित्वहीनता के कारण प्रकाशन-उद्योग का मूल-धर्म लांछित होता है। छठा
अपराध खरीदार पाठक के भरपूर आर्थिक-मानसिक शोषण के अलावा कागज जैसी राष्ट्रीय-सम्पदा
के निष्प्रयोजन अपव्यय का है...। अपराधों की सूची और लम्बी बन सकती है। स्पष्ट
है कि ऐसे अनुवादों से इस कर्म का एक भी उद्देश्य पूरा नहीं होता, फिर ये
अनुवाद किस लिए और किसके लिए? जनहित एवं राष्ट्रहित में ऐसे असावधान
अनुवादकों से अनुवाद-कर्म को बचाने की बड़ी जरूरत है।
गौरतलब है कि इस पूरी
प्रक्रिया में किसी न किसी तरह कमाई सब कर लेते हैं, पर इस वृत्ति का मूल
उद्देश्य धरा का धरा रह जाता। अनुवादक, प्रकाशक, पुस्तक विक्रेता...हर कोई
अपना-अपना अंशलाभ पा लेते हैं, केवल उस कर्म की प्रयोजनीयता निष्फल जाती है।
प्रारम्भिक दौर के प्रकाशन व्यवसायियों और अनुवाद उद्यमियों की यह मंशा तो
कतई न रही होगी। उन्नत सामाजिक सरोकार के आग्रह की पुनीत धारणा से ही उन पुण्यात्माओं
ने इस जोखिम भरे क्षेत्र में पाँव रखा था। उनके लिए अनुवाद और प्रकाशन एक मिशन
था, व्यवसाय नहीं। जब से अनुवाद की व्यावसायिकता स्पष्ट हुई, इस क्षेत्र में
गन्ध फैलने लगा। जाहिर है कि शत-प्रतिशत इस उद्देश्यविमुखता का कारण धनलाभ
की उग्र कामना है। लगाए हुए श्रम और समय का मूल्य पूरी तरह वसूल लेना ही अब उनका
धर्म हो गया है, अपना मूल-धर्म वे भूल चुके हैं। सम्भवत: यही कारण हो कि वृहत्तर
समाज आज के अनुवादकों को वह सम्मान नहीं देता, जो कभी भारत में यास्क, कुमारजीव,
पाणिनी, सायनाचार्य, पण्डितराज जगन्नाथ, अब्दुल कादिर बदायूँनी, अबुल फजल, टोडरमल, फैजी, दाराशुकोह को प्राप्त था। साहित्य
अकादेमी अथवा अन्य संस्थान बेशक आज अनुवाद-कार्य से जुड़े लोगों को उनके पुनीत
कार्य हेतु सम्मानित करते हैं, पर तथ्य है कि भाषा एवं साहित्य के ज्ञान से
सम्पन्न प्रथम श्रेणी की प्रतिभाएँ इस क्षेत्र में पाँव रखने से अब हिचकती
हैं। हिन्दीपट्टी में भाषाई ज्ञान के बूते धनार्जन करनेवाले अधिकांश बौद्धिकों
की नैतिकता में तेजी से हुए ह्रास के साथ-साथ इस स्थिति के और भी कई कारण हैं।
पहला कारण है सस्ते मानदेय पर अनुवादक जुटाने
की सहज वृत्ति। बढ़ती बेरोजगारी की वजह से आजकल ऐसे अनुवादकर्मी बड़े आराम से मिल
जाते हैं। अनुवादक और नियोक्ता के इस आचरण से अनुवाद-कर्म की स्तरीयता लांछित हुई है। दायित्वहीन
अनुवादकों की भरमार और अनुवाद-शुल्क की न्यूनता देखकर ज्ञान-सम्पन्न श्रेष्ठ
अनुवादक इस बाजार में झाँकना मुनासिब नहीं समझते। वे अब उन्हीं पुस्तकों के
अनुवाद में रुचि लेते हैं, जिनमें उनका मन रमता है, या जिसका सामाजिक सरोकार
उन्हें उन्नत दिखता है, या किसी बेहतरीन पाठ के अनुवाद हेतु कोई संस्था उन्हें
समुचित सम्मान एवं मानदेय देती है। भारत की सारी संस्थाएँ अनुबन्ध के समय
सरकारी संस्थाओं द्वारा निर्धारित अनुवाद-शुल्क का अनुशरण करते हुए अनुवादकों
का शोषण करने लगती हैं। सरकारी संस्थानों में अनुवाद-शुल्क निर्धारित करने वे
लोग बैठते हैं, जिन्हें अनुवाद-कर्म के मर्म का ज्ञान नहीं होता। रोजगारहीनता के
कारण इस क्षेत्र में कूद पड़े लोगों का परम-चरम धर्म तो धनार्जन होता है। उनकी
सबसे बड़ी नैतिकता होती है पैसा; पैसा किसी भी तरह बने, पर बने। रोजगार के आखेट
में घूमते उन सिपाहियों से और अधिक की उम्मीद भी नहीं की जानी चाहिए। अब बचे
पुनर्वीक्षक और सम्पादक; उन्हें तो राय देकर अपना वर्चस्व बनाए रखना है, और
अनूदित पाठ का सम्पादन पूरा कर अपनी नौकरी निपटा लेनी है। फिर प्रकाशक को अन्तत:
किसी पर तो विश्वास करना होगा, वे इन अनुभवियों (?) की अनुशंसा को आर्ष-वाक्य
मान कर आगे बढ़ जाते हैं। विक्रेताओं का तो सीधा सम्बन्ध बिक्री से है। अन्तत:
इन सभी की सामाजिक दायित्वहीनता का शिकार वे पाठक होते हैं, जो अपनी
ज्ञानाकुलता के कारण सारी क्षुद्रताओं का शिकार होते हैं। और, आहत होते हैं दूसरी
भाषाओं के वे लेखक, जो हिन्दी की बड़ी दुनिया में आकर अपनी रचनात्मकता का अलख
जगाने के यश:प्रार्थी हैं, और इस शृंखलाबद्ध दुष्कृत्य में उनकी सारी कामनाओं पर
अनुवादक की अज्ञानता की गाज गिर जाती है। सवाल है कि अनुवाद की दुनिया का यह
घोटाला, विगत तीन दशकों से प्रचारित भारत के किसी बड़े घेटाले से छोटा है क्या?
इस बौद्धिक छद्म से हमारे देश के उद्यमियों को बचने की जरूरत है।
हमारे देश के आज के अनुवादक
अपने पूर्वज मनीषियों के एकनिष्ठ अनुवाद-प्रेम से प्रेरणा लें और वर्तमान राष्ट्रीय
परिदृश्य में अनुवाद की महती भूमिका का आकलन करते हुए अपनी स्वदेशी निष्ठा
को याद करें तो शायद वे भ्रष्ट अनुवाद करने की दुर्वृत्ति छोड़ दें। राष्ट्र के
गरिमा-रक्षण में अनुवाद की भूमिका पर गम्भीरतापूर्वक विचार करना हर नागरिक का
कर्तव्य होना चाहिए। वैश्विक स्पर्द्धा के मद्देनजर इसकी बड़ी जरूरत है। इसे राष्ट्रप्रेम
की प्राथमिक पहचान के रूप में देख जाना चाहिए। ज्ञानात्मक क्षेत्र की असीम प्रतिस्पर्द्धा के कारण
समृद्ध भारतीय चिन्तन-स्रोतों (think-tank) को और अधिक समृद्ध करने की आवश्यकता इक्कीसवीं
सदी के प्रारम्भ में ही महसूस होने लगी। गहन-ज्ञान की दिशा में भारत को प्रतिस्पर्द्धी
बनाने की बड़ी जरूरत हुई। ज्ञानात्मक उत्थान हेतु शैक्षिक एवं शोध संस्थानों
का उदग्र विकास अनिवार्य लगने लगा। भारत को दुनिया भर की बौद्धिकता की चुनौतियों
का सामना करना था। फलस्वरूप यहाँ अपने कामकाज को अधिक पारदर्शी बनाने की दिशा
में नवीनतम तकनीक के अपने प्रयोगों को उन्नत करने की चिन्ता बढ़ी। भारत में 13
जून 2005 को राष्ट्रीय ज्ञान आयोग (National Knowledge
Commission) का गठन इसी चिन्तन की परिणति
है और इस आयोग के
सुनिश्चित दायित्व में अनुवाद-कर्म की गरिमा का प्रभूत संकेत है। शैक्षिक क्षेत्रों, अनुसन्धान प्रयोगशालाओं एवं बौद्धिक सम्पदा के विधानों
में सुधार की सिफारिश करना इस आयोग का दायित्व सुनिश्चित हुआ; दिसम्बर 2006
में आयोग ने प्रधानमन्त्री को राष्ट्रोत्थान हेतु पुस्तकालय, ज्ञान, ई-गवर्नेन्स,
अनुवाद, विभिन्न भाषाओं, एवं भारत के राष्ट्रीय पोर्टल को प्रोन्नत करने की संस्तुति
भी दी। गौर से देखने पर राष्ट्रोत्थान हेतु लक्षित इन सारे घटकों में अनुवाद एक
धुरी की तरह दिखता है। जिम्मेदार अनुवादकीय दक्षता के बिना आज कोई भी राष्ट्र ज्ञानात्मक
उत्थान की ओर कदम नहीं रख सकता, अपने चिन्तन-स्रोतों को समृद्ध नहीं कर सकता,
शैक्षिक संस्थानों का उदग्र विकास नहीं कर सकता। लिहाजा वैश्विक स्पर्द्धा
में डटकर खड़े होने के लिए अनुवाद अपरिहार्य है। इस समय अनुवाद-उद्यम राष्ट्रीय
गरिमा का सबल स्तम्भ है। भारत जैसे बहुसांस्कृतिक और बहुभाषिक राष्ट्र में
'अनेकता में एकता' का सूत्र अनुवाद ही स्थापित कर सकता है। धर्म के प्रचार, विचारों
की यात्रा, राज-सत्ता के सफल संचालन, ज्ञान के विकास, सांस्कृतिक आदान-प्रदान,
अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध...मानव जीवन के हर प्रसंग की आधारभूमि के रूप में आज
अनुवाद की ओर नजर जाती है। कहा
जा चुका है कि मनुष्य जो कुछ मौलिक समझकर बोलता, करता या रचता है, वह सारा का
सारा उसके चिन्तन एवं अनुभूतियों का भाषिक अथवा क्रियात्मक अनुवाद होता है।
सभ्यता के विकास काल से ही विचार एवं वस्तु के विनिमय हेतु अनुवाद विभिन्न
रूपों में मानव-जीवन का सहचर बना हुआ है। आगे चलकर यह विनिमय/अनुवाद व्यापार का
अंग बना; धर्म एवं मत के प्रचार, राज-सत्ता संचालन, ज्ञान के विकास-प्रचार, अन्तर्राष्ट्रीय
कूटनीतिक सम्बन्ध...कई दिशाओं में इसकी अनिवार्य भागीदारी हुई। बीसवीं सदी के
आते-आते तो यह मानव-जीवन के साँस-साँस आधार बन गया।
जर्मन कवि, उपन्यासकार, नाटककार, जोहान
वोल्फगैंग वॉन गेटे (सन् 1749-1832) ने उन्नीसवीं सदी के शुरुआती दशकों में अपने
कई निबन्धों में यूरोप में गैरपश्चिमी मूल की रचनाओं समेत साहित्यिक कृतियों के
अन्तरराष्ट्रीय संचार और स्वागत की व्याख्या हेतु विश्व-साहित्य की अवधारणा दी। अनुवाद
के बिना तो इस विश्व-साहित्य की अवधारणा ही असम्भव थी। स्पष्टत: इसकी वैश्विक
महत्ता सर्वमान्य थी। उनसे कई सदी पूर्व प्रसिद्ध भारतीय ग्रन्थ 'पंचतन्त्र'
के पहलवी, अरबी एवं फारसी अनुवाद तथा अन्य भारतीय ग्रन्थों के अनुवाद ने अनुवाद
की वैश्विक उपादेयता साबित कर दी थी। सन् 1835 में गेटे के शिष्य जोहान पीटर
एकरमन (Johann Peter Eckermann)
ने गेटे के साथ बातचीत की एक पुस्तक प्रकाशित करवाई। उस प्रकाशन के बाद विश्व-साहित्य की अवधारणा को बड़ी ख्याति
मिली। गेटे ने एकरमन से चीनी उपन्यासों, फारसी एवं सर्बियाई कविताओं के अपने अध्ययन
के उत्साह और विदेशों में, खासकर फ्रांस में अपनी रचनाओं के अनुवाद एवं प्रसिद्धि
से हुई प्रसन्नता के बारे में चर्चा भी की थी। जनवरी 1827 के एक प्रसिद्ध बयान में
गेटे ने एकरमन से भविष्यवाणी की थी कि आने वाले वर्षों में साहित्यिक रचनात्मकता
के मुख्य घटक के रूप में राष्ट्रीय साहित्य की जगह विश्व-साहित्य ले लेगा। उन्होंने
कहा था कि--मैं पूरी तरह आश्वस्त हूँ कि कविता, खुद को एवं सैकड़ो-हजारो मनुष्यों को सर्वत्र और
सर्वदा प्रकट करती हुई, मनुष्य जाति का सार्वभौमिक अधिकार है। इसीलिए मैं अपने
कृतिकर्मों के बारे में अन्य राष्ट्रों की धारणा के प्रति उत्सुक रहता हूँ,
औरों को भी ऐसा करने की सलाह देता हूँ। राष्ट्रीय साहित्य अब अर्थहीन पदबन्ध हो
गया है; विश्व-साहित्य का समय आ
चुका है, हर किसी को अब शीघ्रता
से इसके दृष्टिकोण अपनाने का प्रयास करना चाहिए।
विश्व-साहित्य की गेटे की इस मौलिक अवधारणा के
आलोक में सन् 1848 के कम्युनिस्ट पार्टी के घोषणा-पत्र में कार्ल मार्क्स और
फ्रेडरिक एंगेल्स ने पूँजीवादी साहित्यिक मानस के महानगरीय चरित्र का वर्णन किया।
फिर तो इस पर असंख्य धारणाओं से विचार होना शुरू हुआ।
गेटे की उद्घोषणा से अब तक के एक सौ नबासी
वर्षों में कई राजनीतिक, व्यापारिक, आर्थिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक
उथल-पुथल विश्व स्तर पर हुए। ज्ञान की शाखाओं में कई महत्त्वपूर्ण मोड़ आए।
तुलनात्मक साहित्य और अनुवाद अध्ययन जैसे स्वतन्त्र अनुशासन अस्तित्व में
आए। इनमें विभिन्न स्तर की डिग्री, डिप्लोमा, प्रशिक्षण की व्यवस्था
होने लगी।
विश्व-साहित्य की इस पुरजोर अवधारणा के
बावजूद राष्ट्रीय साहित्य का मूल स्वभाव कायम रहा। साम्राज्य विस्तार के शिकारियों
ने उपनिवेशों में जैसी हरकतें कीं, उनसे नागरिक मन में राष्ट्रीय स्तर पर भाषिक
चेतना जाग्रत हुई। फलस्वरूप विश्व-साहित्य के साथ-साथ राष्ट्रीय और
क्षेत्रीय साहित्य की गरिमा भी मुखर हुई। भारत जैसे विशाल लोकतन्त्र में इसका
और भी महिमामय रूप देखा जा सकता है। जनपदीय भाषाओं में संचित-विकासमान नागरिक
अस्मिता के सूत्रों की सुरक्षा के प्रति लोग चिन्तित हुए। भारतीय स्वतन्त्रता
संग्राम के दौरान हुए भाषाई एवं अनुवादकीय उपक्रमों में इस नागरिक-बोध का स्पष्ट
परिचय मिलता है। स्वाधीनता आन्दोलन में भारतीय अनुवाद उद्यम के विलक्षण अवदान
से कोई भी चिन्तनशील व्यक्ति इनकार नहीं कर सकता।
भाष्य, टीका एवं आत्मसातीकरण के रूप में तो
भारतीय अनुवाद की परम्परा उपनिषद काल से चली आ रही है, पर स्वाधीनता आन्दोलन
के दौरान एवं उसके बाद के समय में इसमें पर्याप्त गति आई। विभिन्न भारतीय
भाषाओं में पारस्परिक अनुवाद हुए। इन तमाम भाषाओं में विदेशी साहित्य के
अनुवाद एवं विदेशी भाषाओं में इनकी रचनाओं के अनुवाद भी विपुल मात्रा में हुए।
पारस्परिक साहित्यिक अनुवाद के कारण इस बहुभाषिक राष्ट्र के नागरिकों के
बीच खड़ी भाषाई अनभिज्ञता की दीवार ध्वस्त हुई और क्षेत्र विशेष की भाषा जाने
बिना भी लोग वहाँ की साहित्यिक-सांस्कृतिक गरिमा; नागरिक जीवन-पद्धति,
एवं आचार-विचार की सूक्ष्मता जानने में कामयाब हुए। इसी रूप में अनुवाद भारत में
'अनेकता में एकता' का आदिस्रोत है। भारत में राष्ट्रवाद की अवधारणा और राष्ट्रीय
एकीकरण की नींव पुख्ता करने में भारतीय अनुवाद परम्परा की अविरल धारा का बड़ा
योगदान है। कालिदास, विद्यापति, शंकरदेव, बंकिम, फकीरमोहन, बसवन्ना, वैक्कम
मोहम्मद बशीर, ज्ञानेश्वर, गुरुनानक आदि के अवदानों से देश भर के नागरिक
अनुवाद के कारण ही अपनापा बना पाए हैं। सभी भाषा-क्षेत्रों में अनुवाद की यह परम्परा
अपने सभी रूपों---भाष्य, टीका, व्याख्या, अनुवचन, अनुवाद द्वारा मौखिक एवं लिखित
तौर पर पल्लवित थी; परन्तु सोलहवीं शताब्दी में भारत में शुरु हुई प्रकाशन और
मुद्रण की व्यवस्था के कारण लेखन और अनुवाद कार्य में गति आई। मौलिक एवं अनूदित
विचार, अर्थात् ज्ञान-सम्पदा आम नागरिकों के लिए सुलभ होने लगी।
गौरतलब है कि छापाखाने की शुरुआत इंग्लैण्ड
में सन् 1476 में हुई। सन् 1620 में अंग्रेजी में पहले समाचार-पत्र का प्रकाशन
एमस्टर्डम से शुरू हुआ। सोलहवीं शताब्दी में पश्चिम जर्मनी में तथा अन्य यूरोपीय
देशों में भी मुद्रण की सूचनाएँ मिलती हैं। सतरहवीं शताब्दी के प्रारम्भ से
आस्ट्रिया, नीदरलैण्ड तथा इटली
में मुद्रण का काम शुरू हुआ। ‘पब्लिक
अकरन्सेस बोथ फारेन एण्ड डोमेस्टिक’ नामक पहला अमेरिकी पत्र 25 सितम्बर 1690 को निकला। दुर्भाग्यवश बोस्टन
अधिकारियों ने प्रवेशांक के बाद ही उसका दमन कर दिया गया, पर यह परम्परा थमी नहीं,
चल पड़ी। भारत में प्रकाशन और मुद्रण की शुरुआत सोलहवीं शताब्दी में हुई। जेसुइट
सन्त पॉल कॉलेज, गोवा में पहला प्रिण्टिंग प्रेस स्थापित हुआ। स्वभावत: भारत में
मुद्रण का काम सन् 1556 में गोवा से शुरू हुआ। सन् 1556 में वहाँ से कन्क्लूजन
ई ऑत्रस क्वाइसस, और कन्फेसनरिअस तथा सन् 1557 में डाउट्रिना
क्रिस्टा शीर्षक से तीन किताबें प्रकाशित हुईं, हालाँकि उनकी कोई प्रतिलिपि
आज उपलब्ध नहीं है। वास्कोडिगामा के भारत आने के 59 वर्ष बाद भारत में पहले
छापाखाने की स्थापना हुई और जर्मनी में गुटेनबर्ग की बाइबिल के प्रकाशन के एक सौ
वर्ष के भीतर भारत ने विभिन्न भाषाओं में टाइप बनाने का काम प्रारम्भ कर दिया।
मनोरंजन और सूचना प्रसारण हेतु अंग्रेजों ने भारत
में मुद्रणालय स्थापित कर जिन पत्रों की शुरुआत की, बाद में वे पत्र ईसाई मत के प्रचार-प्रसार के माध्यम
बन गए। फलस्वरूप अंग्रेजी हुकूमत के विरुद्ध आवाज उठी और भारतीय पत्रकारिता का
श्रीगणेश हुआ। राजा राममोहन राय समेत अन्य कई भारतीय चिन्तक इसके पुरोधा हुए।
ध्यातव्य है कि स्वाधीनता संग्राम के हमारे अधिकांश नेता पत्रकारिता, लेखन और प्रकाशन कार्य से सम्बद्ध थे। भारत की
इस अति प्राचीन लेखन परम्परा को संवाद-सम्प्रेषण हेतु संचालित मुगल-शासन की ‘वाकयानवीस’ परम्परा ने और पुष्ट किया। अठारहवीं शताब्दी में
ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने उसी ‘वाकयानवीस’ परम्परा की सेवाएँ लेकर प्रकाशन कार्य शुरू किया। सन् 1821 में राजा राममोहन राय ने ‘मिरातुल अखबार’ नामक साप्ताहिक पत्र शुरू किया; 30 मई 1826 को देवनागरी में पहला पत्र ‘उदन्तमार्तण्ड’ प्रकाशित हुआ; फिर ‘सुधाकर’, ‘कवि वचन सुधा’, ‘सरस्वती’ आदि पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन शुरू हुआ और भारत में प्रकाशन उद्योग फलने-फूलने
लगा।
उल्लेखनीय है कि स्वाधीनता आन्दोलन के
दौरान भारतीय चिन्तकों ने अनुवाद और मौलिक लेखन द्वारा अंग्रेजी नीति का मुँहतोड़
जवाब देने का जो कारगर उद्यम किया, उससे आम नागरिकों में अपनी अस्मिता के
मसलों को लेकर भाषिक चेतना अत्यधिक प्रखर हुई। निजभाषा में जनरुचि का विकास
हुआ। लेखन, अनुवाद, प्रकाशन, अध्यवसाय की दिशा में सक्रियता बढ़ी। भारत में आज के
बहुभाषिक प्रकाशन एवं अनुवाद सम्बन्धी गतिविधियों में इनके महत्त्वपूर्ण
योगदान देखे जा सकते हैं। कुछेक सरकारी एवं कई स्वैच्छिक संस्थान इन दिनों
यदि बहुभाषिक प्रकाशन द्वारा भारत की अखण्डता को सबल करने में अपना योगदान दे
दे रहे हैं, तो इसका महत्तम श्रेय भारत की महिमामय अनुवाद परम्परा को जाता है।
पर अनुवादकों की उल्लिखित गैरजिम्मेदारी दुखद है।
धनलाभ की उग्र लिप्सा और कार्य-कौशल के प्रति परांग्मुखता के कारण अनुवाद की
बड़ी दुर्गति हो रही है। पुस्तकालयों के रैक्स अनूदित पुस्तकों से भड़ी रहती
हैं, पर भ्रष्ट अनुवाद के कारण उस जंजाल में प्रवेश करते पाठक थक जाता है। ज्ञान
थकाता नहीं, थकान मिटाता है। ये गैरजिम्मेदार अनुवादक नहीं जानते कि भारत जैसे
बहुभाषिक राष्ट्र के नागरिकों के बीच खड़ी भाषाई अनभिज्ञता की दीवार पारस्परिक
साहित्यिक अनुवाद के कारण ही ध्वस्त हुई है, क्षेत्र विशेष की भाषा जाने
बगैर भी लोग वहाँ की साहित्यिक-सांस्कृतिक गरिमा; नागरिक जीवन-पद्धति, एवं
आचार-विचार की सूक्ष्मता जानने में कामयाब हुए हैं, इसलिए हम भी अपनी जिम्मेदारी
निभाएँ। महान लक्ष्य की प्राप्ति हेतु उपयोगी अनुवाद-कर्म एक पवित्र यज्ञ है,
अनुवादकों को भी इस यज्ञ में अपनी शुचिता और दायित्व का परिचय देना चाहिए,
कार्य-कौशल न हो तो इस क्षेत्र से दूर रहना चाहिए।