Sunday, February 1, 2015

सोइ पिरीत अनुराग

 ‘प्रेममानव जीवन का उतना ही आवश्यक तत्व है जितना मानव जीवन का अस्तित्व। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल कहते हैं--प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिम्ब होता है, तब यह निश्चित है कि जनता की चित्तवृत्ति के परिवर्तन के साथ-साथ साहित्य के स्वरूप में भी परिवर्तन होता चला जाता है। आदि से अन्त तक इन्हीं चित्तवृत्तियों की परम्परा को परखते हुए साहित्य-परम्परा के साथ उनका सामंजस्य दिखाना साहित्य का इतिहासकहलाता है। इस आधार पर यह बात बेहिचक मानी जानी चाहिए कि प्रेमऔर साहित्यके ताल्लुकात बुनियादी तौर पर बड़े गहरे हैं।
सृजन के प्रारम्भिक वर्षों से आज तक का साहित्य हर भाषा में अपने परिवेश की चित्तवृत्ति को चित्रित करता आया है। और, हर भाषा के साहित्य का एक महत्त्वपूर्ण अंश प्रेम के नाम समर्पित रहा है। यदि थोड़ा व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो किसी भी रसके साहित्य-सृजन का मूल कारण ही प्रेम होता है। आदिकवि वाल्मीकि को क्रौंचवध के बाद यदि करुणा उत्पन्न हुई तो इसका मूल कारण प्रकृति के सारे जीवों से प्रेम ही था और जिससे उन्हें प्रेम था उसका वध देखकर करुणा उत्पन्न होना लाजिमी था।
तमाम आधुनिक भारतीय भाषाओं में मैथिली पर्याप्त समृद्ध भाषा है। किसी भी भाषा की सम्पन्नता उसके सृजन की विरासत के उत्कर्ष, और जनपद में उसके सम्मान के आधार पर आँकी जाती है। उल्लेखनीय है कि हिन्दी साहित्य के इतिहास में विद्यापति, आदिकाल के रचनाकार माने गए हैं। जबकि मैथिली साहित्य का मध्यकाल विद्यापति से शुरू होता है। मैथिली भाषा साहित्य में विद्यापति से पूर्व के साहित्य को आदिकाल में रखा गया है। उनसे पूर्व ज्योतिरीश्वर के वर्णरत्नाकरमें गद्य का स्वरूप पर्याप्त परिपक्व और सुगठित है, जिससे यह तय करना आसान है कि वर्णरत्नाकरसे सैकड़ों वर्ष पूर्व मैथिली में पद्य रचना की एक समृद्ध परम्परा रही होगी, जो मुद्रण व्यवस्था तथा संरक्षण के अभाव में उपलब्ध नहीं रही। यहाँ ऐतिहासिक तथ्य खोजना ध्येय नहीं।
वैसे तो यह साहित्येतिहास लिखनेवालों की इतिहास-दृष्टि पर निर्भर करता है कि उन्होंने काल-विभाजन का आधार क्या निर्धारित किया है। हिन्दी में इन्हें आदिकाल में रखे जाने का तर्क यह है कि इनका अवसान सन् 1438 से 1448 के बीच हुआ, जो हिन्दी साहित्य के आदिकाल का अन्तराल है, और जिसे आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने, उस दौर के वीरगाथात्मक रचनाओं की बहुतायत और प्रमुखता के कारण वीरगाथा काल कहा है। आचार्य शुक्ल ने विद्यापति की कृति कीर्तिलताको इतना महत्त्वपूर्ण माना कि उनकी अन्य रचनाओं की गरिमा काल-विभाजन की रूपरेखा तैयार करने में उपेक्षित हो गई। पर मैथिली के साहित्येतिहास लेखकों के लिए विद्यापति की भाषा और समाज सम्बन्धी घोषणाएँ प्रमुख साबित हुईं, और देसिल वयना सबजन मिट्ठाके उद्घोषक से नए युग (अर्थात् मैथिली साहित्य का मध्यकाल) की शुरुआत मानना उन्हें उचित, और प्रीतिकर लगा। हालाँकि दोनों भाषाओं के विवेचकों को रमानाथ झा की यह घोषणा मुसीबत में डाल देती है, कि कीर्तिलताविद्यापति के प्रारम्भिक समय की पुस्तक नहीं है। वह बाद के दिनों में नागरिकों के अनुनय पर बेमन से लिखी किताब है, और कीर्तिपताकाकी तो पूरी पुस्तक भी उपलब्ध नहीं है। बहरहाल...
वर्णरत्नाकरको कविकर्म की निर्देशिका मानी जाए तो अनुचित न होगा। इस गद्य ग्रन्थ में ज्योतिरीश्वर ने विविध जैविक उपादानों का वर्णन किया है। कल्लोलों में विभक्त इस ग्रंथ के ज्यादातर कल्लोलों में प्रेम के स्वरूप खोजे जा सकते हैं। नायक, नायिका, शृंगार, स्नान, ऋतु, कामावस्था, वर्षा, चन्द्रमा, वेश्या आदि के वर्णनों में रचनाकार के लोक-सम्बन्ध, जीवन के तत्वों से तादात्म्य बड़ी सूक्ष्मता से परिलक्षित हैं। इन सारी स्थितियों के वर्णन में प्रेम के तत्व मूर्तिमान हैं। नायिका की हँसी का वर्णन करते हुए ज्योतिरीश्वर लिखते हैं--कुमुद, कुन्द, कदम्ब, कास, भास, कैलास, कप्र्पूर, पीयूषक कानि प्रसारी सन, शरतक पूर्णिमा, चाँदक ज्योत्स्ना अइसन, त्रैलोक्यो वश करइतें...। कल्पना सखी, शयन... और उपमा की यह विविधता रचनाकार के विराट अनुभव, तीक्ष्ण प्रतिभा और वास्तविक लोकजीवन के यथार्थ से गहरे सरोकारों का सबूत है। इस ग्रन्थ के अवलोकन से यह तय करना बहुत सहज है कि मैथिली साहित्य में प्रेम का उत्कृष्ट रूप प्रारम्भिक दिनों से ही रहा है। इसी वर्णरत्नाकर में लोककण्ठ में बसे कुछ मौखिक साहित्य विरहाऔर लगनीआदि की जैसी चर्चा है, उस आधार पर प्रारम्भ से ही, लोकजीवन में भी जड़ जमाए प्रेम-काव्य का स्वरूप निर्धारित होता है।
साहित्य के तीन प्रधान रस--भक्ति, वात्सल्य और शृंगार--का मूल केन्द्र प्रेमही है। मात्र इतने को ही प्रेम के परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो आज जो कविताएँ आम जनता के दुख-दर्द का गुणगान करती हैं, उनका आधार-तत्व भी प्रेम ही है।
ज्योतिरीश्वर युग की समाप्ति के तुरन्त बाद मैथिली साहित्य में महाकवि विद्यापति आते हैं। शंृगार का जैसा उत्कृष्ट उदाहरण विद्यापति के साहित्य में है, वैसा संसार की किसी भी भाषा के साहित्य में मिलना दुर्लभ है। यद्यपि विद्यापति पर बहुत दिनों तक बंगला और हिन्दी के लोग दावा करते रहे। बाद में बंगला के विद्वान निश्चिन्त होकर बैठ गए; पर हिन्दी के लोग अभी भी अपना दावा रखे हुए हैं। यह विडम्बना ही है कि जिन बारह पुस्तकों को लेकर आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने हिन्दी साहित्य के वीरगाथा काल का नामकरण किया उनमें से सबसे प्रामाणिक पुस्तक कीर्तिलताऔर कीर्तिपताकाके रचनाकार विद्यापति, फुटकल खाते में डाल दिए गए। बहरहाल, साहित्येतिहास का विवाद सुलझाना इस निबन्ध का ध्येय नहीं, इसलिए विद्यापति की शृंगारिक रचनाओं की चर्चा ही श्रेयस्कर होगी।
प्रेम एवं शृंगार सम्बन्धी विद्यापति की जो भी रचनाएँ हैं, वे विद्यापति पदावली में ही हैं। प्रेम के सार का उत्कर्ष उनकी पदावलियों में ही मौजूद है। मैथिली से हिन्दी तक के ज्यादातर विद्वान उनकी लोकप्रियता एवं ख्याति का आधार उनकी पदावली को ही मानते हैं। संयोग शृंगार हो अथवा वियोग शृंगार--हर स्थिति में पदावलियों में प्रेमकी अनुभूति की जो तीव्रता दिखती है, वह भावक के मन को व्याकुल और विह्वल कर देती है। यहाँ नायिकाओं का नख-शिख वर्णन, नायकों का चरित्रगान, सद्यःस्नाता के उन्नत उरोजों और स्निग्ध कपोलों, भीगे नीवी-बन्ध और आकुल केश-पाश के वर्णन ही नहीं, मिलन की स्थिति में सुध-बुध खोकर आनन्द के सागर में गोता लगाने की स्थिति और विरह की स्थिति में दोनों पक्षों की आतुरता का वर्णन जीवन्त हो उठता है।
राधा-कृष्ण के प्रेम का चित्र उकेरते हुए विद्यापति ने प्रेम के उन सारे सूक्ष्मतर बिन्दुओं को मूर्त किया है, जो मनुष्य के क्षण विशेष के तीव्र मनोवेग का अनुषंग है। उनके यहाँ वयःसन्धि, मानसिक और आचरणगत चंचलता का चित्र जितना विस्तृत और स्पष्ट है, उतना ही मूर्त नायिका के आंगिक विकास का...। यौवनोन्माद और प्रियमिलन की उत्कण्ठा उनके यहाँ कितना शालीन है और कितना उद्धत--यह तय कर पाना मुश्किल है। उनकी नायिका कहीं अभिसार हेतु जाते समय घर के गुरुजनों का डर भूल जाती हैं तो दूसरी तरफ अभिसार को गुप्त रखने के लिए तरह-तरह के उद्योग में लगी रहती है--
सखी हे, आज जाएब मोहिं
घर गुरुजन डर न मानब, वचन चूकब नाहि
इधर प्रिय-मिलन के लिए दिए गए वचन निभाने हेतु, अभिसार हेतु घर के बुजुर्गों का कोई डर नहीं मानती, उधर शुक्लाभिसार या कृष्णाभिसार या पावसाभिसार के लिए ऐसे वस्त्रा, ऐसे आभूषण का चयन करती रहती हैं कि रात में जाते हुए समाज के लोग या परिवार के लोग उनके परिधान के कारण उन्हें पहचान न पाए। शुक्ल पक्ष की चाँदनी रात में जब नायिका अपने प्रिय से मिलने जाएगी तो धवल परिधान धारण करेगी, अपने काले बालों को भी श्वेत पुष्प गुच्छ से इस तरह सजा लेगी कि रास्ते में चलते समय किसी की नजर पड़े भी तो उसे सन्देह न हो कि कोई मनुष्य है, वह यह सोचे कि यह चाँदनी का ही अंश है। यहाँ तक कि पायल से आवाज न निकले, इसका अभ्यास घर में ही कर लेगी। विद्यापति के प्रेम विषयक पदावली की नायिका, राधा का यह शालीन और साहसी आचरण प्रेम जीवन के साहस और कोमलता का परिचायक है।
राधा-कृष्ण प्रेम विषयक कविताएँ कई भाषाओं में उस काल के कई कवियों ने लिखी हंै। पर जहाँ जयदेव के यहाँ राधा का स्वरूप प्रेम में भाव-विह्वल है, चण्डीदास के यहाँ राधा प्रेम में मुग्ध है, वहीं विद्यापति की राधा विलास और उसकी कल्पना में खोई हुई दिखती हैं। उनके यहाँ आम तौर पर राधा का वय किशोरी से पूर्ण युवती तक दिखता है, जहाँ कभी वह मदनोन्माद में प्रियतम को कोसती है मदन वेदन बड़ पिया मोरा बोलछड़’; कभी सहेली को अपने प्रिय मिलन का अनुभव सुनाती है सखि की पूछसि अनुभव मोहि’; कभी अपने प्रियतम को सन्देश भेजने के लिए दूत ढूँढती है के पतिया लए जाएत रे, मोरा प्रियतम पास’; कभी सहेली से अपनी विरह-वेदना सुनाती है सखि हे! हमर दुखक नहि ओर’; कभी अपने बेमेल विवाह की व्यथा समाज से कहती है पिया मोरा बालक हम तरुणी गे!साहस और शालीनता के बीच अनिर्णय की स्थिति में पड़ी, कभी-कभी असहज हरकतें भी कर लेने वाली विद्यापति की नायिका, राधा के इतने रूप, मानव जीवन की विविधता और समय विशेष के सामाजिक ढाँचे को स्पष्ट करते हैं।
विद्यापति के यहाँ विरहावस्था की व्याकुलता सखि हे! हमर दुखक नहि ओर’, ‘लोचन नीर तटिनि निर्माणे’, ‘सजनि के कह आओत मधाई’, ‘के पतिया लए जाएत रे’, ‘माधव कठिन हृदय परवासी’, ‘विरह व्याकुल बकुल तरु तर, पेखल नन्द कुमार रे’, ‘नयनक नीर चरण तर गेलकृजैसे गीतों में तो दिखती ही है; विरह के बाद मिलन और फिर मिलन के बाद की अतृप्ति भी वहाँ नए क्षितिज का निर्माण करती है। उनके यहाँ विरहावस्था का क्षण’, ‘युगजैसा और मिलनावस्था का युग’, ‘क्षणजैसा बीतता है। मिलन के उस सुख की अतृप्ति नायिका के इन शब्दों में दिखती हैः
सखि की पूछसि अनुभव मोय
सोइ पीरित अुनराग बखानइते तिल तिल नूतन होय
जनम अवधि हम रूप निहारल नयन न तिरपित भेल
सेहो मधुर बोल श्रवणहि सूनल श्रुति पथे परस न गेल
कत मधु यामिनी रभसे गमावल न बुझल कैसन केलि
लाख-लाख युग हिय-हिय राखल तइयो हिया जुड़ल न गेल
वास्तविक अर्थों में प्रेमदो मन के अनियन्त्रित विचरण, और व्यवहार से परिभाषित होता है। प्रेम के फलक भी मन ही की तरह अमूर्त, और उसके कार्य व्यापार मन के फैलाव की तरह विशाल और विशृंखल होते हैं। विद्यापति की पदावलियों में प्रेम के फलकों की यह विशालता साफ-साफ दिखती है। जिनकी नायिका का हाल आध आँचर खसि आध वदन हँसि आधहि नयन तरंगहै, जिनकी नायिका मदन-वेदना में इतनी व्याकुल है कि वह पियाको बोलछड़जैसी गाली दे बैठती है, उन्हीं की नायिका के प्रेम की निष्ठा यह है कि वह राधा आराधिका का प्रतीक बन जाती है। प्रेम का वह आराध्य स्वरूप निखर उठता है। फिर प्रेम नर-नारी के यौन मिलन तक सीमित नहीं होता; भक्त और भगवान का समन्वय दिखने लगता है। भगवान वहाँ रमणहोते हैं और भक्त रमणी। इस दशा में प्रेम का यह तरंग उसी भगवान के सागर से उठता है और फिर उसी में समा जाता है--तोहे जनमि पुनि तोहे समाओब सागर लहरि समाना!
प्रेम का यह स्वरूप आध्यात्मिक है, जो जीव और परमात्मा के सम्बन्ध जैसा दिखता है। उन्माद के सारे क्रिया-व्यापार की मौजूदगी के बावजूद विद्यापति के यहाँ प्रेम कहीं अभद्र और शरीरी नहीं लगता, यह प्रेम जीवन का पर्याय होता है। वहाँ प्रेमी और प्रेमिका के सम्बन्धों का स्वरूप यह है कि नायिका, जब नायक की अनुपस्थिति में उन्हें याद करती है तो वह अपना अस्तित्व तक भूल जाती है: अनुखन माधव माधव सुमरइत, सुन्दरि भेलि मधाई, ओ निज भाव सुभाबहि बिसरल अपने गुण लुबाधाई। यह वही स्थिति है जब महामिलन में भक्त और भगवान का भेद समाप्त हो जाता है। इसे ही amalgamation with God या immersion in the absoulte कहा जाता है।
इतने दृष्टान्तों से यह भी नहीं समझा जाना चाहिए कि विद्यापति के यहाँ प्रेम की यह शृंखला वन वे ट्राफिकहै। मिलन की स्थिति में नायक द्वारा मानभंग करने हेतु किए गए यत्नों को देखकर, प्रेम की आकुलता और प्रेम का घनत्व समझा जा सकता है। विरह-वेला की समाप्ति के बाद मिलन की स्थिति में नायिका रूठ जाती है और नायक को कुछ देर तरसाकर दण्डित करने हेतु मान ठान देती है, ऐसे समय में नायक के मन की बातें मानिनि! आब उचित नहि मान’, ‘मान परिहरिहे करु वचन मोरा’, ‘मानिनि आकुल हृदय मोरकृजैसे गीतों में स्पष्ट और प्रभावी ढंग से चित्रित हुई हैं।
विद्यापति का प्रभाव मैथिली भाषा और साहित्य के परवर्ती काल में लम्बे समय तक न केवल बना रहा, बल्कि सारे रचनाकार उनके यहाँ अपने रचनात्मक कौशल के लिए जीवन-रस प्राप्त करते रहे। विद्यापति के बाद गोविन्ददास जैसे पुरोधा कवि ने उनकी परम्परा को कुछ तो पुष्ट किया, और कुछ नवीनताएँ दीं। बीच में भी कुछ छुट-पुट रचनाएँ हुईं। पर उनमें ज्यादातर शृंगारपरक, कुछ भक्तिपरक रचानएँ भी र्हुइं। उस अन्तराल की शृंगारपरक रचनाएँ भाषागीत संग्रह और राग तरंगिणी में संकलित हैं। इन संग्रहों में संकलित शृंगारपरक रचनाओं में वैसे प्रेम का वह उत्कर्ष नहीं दिखता जिसकी चर्चा गम्भीरता से की जाए। अमृतकर, हरपति, दशावधान ठाकुर, कंसनारायण जैसे रचनाकारों की कुछ रचनाओं में रूप, रस, वर्णन और किंचित विरह वर्णन मिल जाता है।
गोविन्ददास ने तो विद्यापति के प्रभाव को अपनी रचनाशीलता में साफ-साफ स्वीकारा--‘कविपति विद्यापति मतिमाने, जाक गीत जगचित्त चोराओल गोविन्द गौरि सरस रस जाने!परन्तु उनकी रचनाओं से यह स्पष्ट हो जाता है कि उनके यहाँ राधा-कृष्ण प्रेम विषयक प्रसंग मानवीय नहीं हैं, वे भक्तिप्रधान हैं। कहीं-कहीं नायिका के रूप-वर्णन में पदलालित्य का उत्कर्ष अवश्य दिखता है।
प्रभाव का फलक वस्तुतः एकतरफा नहीं होता। प्रभावित करने वाला, और प्रभावित होने वाला--दोनों की प्रतिभा, मनःस्थिति, वैचारिकता, वातावरण, रचनात्मक उत्कर्ष, रचनाओं का सामाजिक सरोकार और शाश्वतता, समय, आवेग...सारा कुछ मिलकर ही प्रभाव डालने और ग्रहण करने की स्थिति तय करता है। इसलिए गोविन्द दास के यहाँ प्रेम का भक्ति में परिणत हो जाना कोई असहज नहीं है। विद्यापति के प्रभाव की यह दशा औरों के यहाँ भी हुई।
इतना अवश्य है कि विद्यापति की गीति-परम्परा आधुनिक काल तक के रचनाकारों को प्रभावित करती रही। उमापति, रमापति, नन्दीपति, रत्नापाणि, हर्षनाथ प्रभृत्ति सतरहवीं से उन्नीसवीं शताब्दी तक के ऐसे कवियों में से हैं जिन्होंने नाटक भी लिखा, तो उनमें अपने गीति कौशल का भरपूर उपयोग किया। उनके नाटकों के विषय सामान्यतया शास्त्रा पुराणों की प्रेम-कथाएँ ही रहे, और रचनाकारों ने उनमें मान, विरह के चित्रण में जीवन्तता भरने में कोई कसर नहीं छोड़ी। पारिजात हरण नाटक में उमापति ने जितने भी पद रचे उनमें पति-प्रेम गर्विता सत्यभामा के गर्व-वाचन, मानिनी सत्यभामा का विरह वर्णन, कृष्ण द्वारा सत्यभामा का मानप्रसादन जितना निखरा हुआ प्रतीत होता है, उतना और कोई प्रसंग नहीं। मान प्रसादन में जब कवि नायक से कहलवाते हैं:
अरुण पुरुब दिसि बहल सगर निसि,
गगन मलिन भेल चन्दा,
मुदि गेल कुमुदिनी तइओ तोहर धनि
मूदल मुख अरविन्दा!
तो मानप्रसादन का यह उत्कर्ष कवि के प्रेमकाव्य सृजन-कौशल का परिचायक है, और इस पंक्ति में महाकवि विद्यापति के रचना-शिल्प और विषय फलक का गहन प्रभाव दिखता है।
रमापति के पद गिरिवर लीन मलीन निसारकर अलप नखत नहि भासे, मुदित कमलवनि नहि तुअ धनि नयन सरोज विकासे!में उमापति के उक्त पद की स्पष्ट छाया तो दिखती है, पर यहाँ रमापति के कौशल के उत्कर्ष की अनदेखी नहीं की जा सकती। नन्दीपति के नाटक कृष्ण केलिमाला, रत्नपाणि के नाटक उषाहरण तथा हर्षनाथ के नाटक उषाहरण में जितने पदों की रचना की गई है, उनमें चित्रित विरह वेदना, मिलन सुख, और नख-शिख वर्णन देखकर इन कवियों के प्रेम चित्रण के आयाम दिखते हैं। इन पदों में चित्रित प्रेम प्रसंग और जीवन यापन के वैविध्य को कम, तथा देह की जरूरत को ज्यादा रंजित करता नजर आता है। वास्तविक अर्थों में यह देखा जाना चाहिए कि ये रचनाएँ जिस दौर की हैं, वह समय हिन्दी साहित्य में रीति काल का है, जब प्रेम’, विलास और क्रीड़ा में केंद्रित था। मैथिली के इतिहासकारों ने इस अन्तराल का नाम उत्तर विद्यापति युगदे तो दिया, पर इस भाषा साहित्य में भी रचनाकर्म उन्हीं बिन्दुओं पर केन्द्रित था। कविवर जीवन झा (सन् 1856-1920) के यहाँ विरह गीतों में चित्रित प्रेम का स्वरूप जीवन की वास्तविकताओं से रू-ब-रू अवश्य होता है। यूँ तो जीवन झा ने भक्ति एवं शृंगार--दोनों तरह की रचनाएँ कीं। कल्पना की सूक्ष्मता, शब्द विन्यास और मधुर संगीतात्मकता उनकी दोनों तरह की रचनाओं में है, परन्तु शृंगारपरक रचनाएँ ही अपेक्षाकृत बेहतर हैं और विरहावस्था में नारी मनोदशा की व्याकुलता उकेरने में रचनाकार का चमत्कार दिखता है। रात ढलने पर घने जंगलों में नायिका वृक्ष से पूछती है कि मेरे प्रिय किधर रुक गए:
एक तँ राति निबिड़तम दोसर विपिन घनघोर
कहु तरुवर मोर जीवन पहु बिलमल कोन ओर


और यहाँ से मैथिली साहित्य में प्रेम काव्य सृजन का स्रोत लगभग सूखता-सा प्रतीत होता है। ऐसे तो कहा जाना चाहिए कि विद्यापति के बाद मैथिली साहित्य में प्रेम काव्य सृजन की परम्परा अत्यन्त क्षीण ही रही और यह क्षीणप्राय स्थिति उन्नीसवीं सदी के पाँचवे दशक तक चलती रही। बीच-बीच में जो कुछ प्रेमपरक कविताएँ लिखी गईं वे एक तरह से उसकी मौजूदगी मात्र का संकेत देती रहीं। 

लोकजीवन की धड़कनों के गीत

भारत जैसे बहुभाषी राष्ट्र को, प्रान्तीय आधार के साथ देखने में बात जितनी सहज आज लगती है, निश्चय ही पहले नहीं रही होगी। दक्षिण भारत के प्रान्तों को भाषाई दृष्टि से देखने की गुंजाइश अब तो बन गई है, पर उत्तर और मध्य भारत में यह गुंजाइश न प्रारम्भ में सहज थी, न अब है। वातावरण, आवोहवा, संस्कृति, लोकाचार, प्राकृतिक अवदान और भौगोलिक परिवेश की विभिन्नता जितनी उत्तर भारत के विभिन्न क्षेत्रों में है, उतनी शायद ही कहीं अन्यत्र हो। दो पड़ोसी राज्य बिहार और झाड़खण्ड (जो पहले एक ही राज्य था--बिहार) को देखें, तो बिहार बाढ़ के पानी से तबाह रहता है और झाड़खण्ड का बहुलांश पानी के बिना तड़पता है। कृषि की अधोगति अलग ही परेशानी उत्पन्न करती है। छोटानागपुर कमिश्नरी के जन जातीय इलाके के छोटे से क्षेत्रफल में 18 जनजातीय भाषाएँ बोली जाती हैं। उधर बिहार में मैथिली, भोजपुरी, मगही के अलावा अंगिका और बज्जिका बोली जाती है। एक ही उत्तर प्रदेश में समतल और पठार का अन्तर तो है ही, भाषा के स्तर पर भोजपुरी, अवधी, ब्रज भाषा आदि कितनी बोलियाँ हैं। इसी विशाल भूखण्ड में दो महाकवि हुए, जिनका लिखा कोई महाकाव्य नहीं है, पर उनकी रचनाओं का असर किसी भी महाकाव्य पर भारी पड़ता है। वे महाकवि हैं--विद्यापति और सूरदास। एक मैथिली से, दूसरे ब्रजभाषा से। दोनों के रचनात्मक अवदान पर एक साथ विचार करना यहाँ अभीष्ट है।
पर्याप्त तर्क वितर्क के बाद यह बात सुनिश्चित होती है कि महाकवि विद्यापति का जन्म मिथिला के बिस्फीनामक गाँव में हुआ। उनका जन्म सन् 1350 से 1360 के बीच और निधन सन् 1438 से 1448 के बीच माना जाता है। यह निर्णय उनकी रचनाओं में अंकित उन सूचनाओं के आधार पर लिया गया है जो स्वयं महाकवि ने अपने, अपने काल के राजाओं और राज्य-व्यवस्थाओं के लिए दी। ध्यातव्य है कि अपने जन्म और मृत्यु की सूचना महाकवि ने अलग से कहीं नहीं दी। उनके पिता का नाम गणपति ठाकुर तथा माँ का नाम गंगा देवी था।
महाकवि सूरदास के जन्म और निधन के सम्बन्ध में भी इसी तरह के अनुमान का सहारा लेना पड़ता है। अनुमान किया जाता है कि उनका जन्म सन् 1478 तथा निधन सन् 1563 के आस पास हुआ। यूँ भक्तमाल और चौरासी वैष्णव वार्ता, आईने अकबरी और मुंशियात अब्बुल फजल आदि के सहारे और जनुश्रुतियों के आधार पर सूरदास के बारे में, सूरदास से सम्बद्ध जानकारी बटोरने में पर्याप्त दिमागी कसरत करनी पड़ती है।
जाहिर है कि उम्र और रचना काल के आधार पर दोनों महाकवियों का कोई आमना सामना नहीं है। अब आज आकर दोनों की चर्चा साथ-साथ की जाए तो उसका आधार एक ही हो सकता है और वह है--रचना परम्परा।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने हिन्दी साहित्य के प्रारम्भिक काल को वीरगाथा कालकहा है। इस नामकरण का आधार जिन बारह पुस्तकों को माना गया, उनमें सबसे ज्यादा प्रमाणिक और शुक्ल जी के तर्क को सबसे अधिक पुष्ट करने वाली पुस्तकें हैं--‘कीर्तिलताऔर कीर्तिपताका। लेकिन हिन्दी साहित्येतिहास और हिन्दी आलोचना तो विसंगतियों और विडम्बनाओं का पिटारा है। मैथिली भाषा को हिन्दी की उपभाषा कहने का ढोल पीटना था, तो मैथिली के कोटा से विद्यापति का अधिग्रहण हिन्दी में कर लिया गया, जैसे राजनीतिज्ञ लोग सर्वजातीय वोट बटोरने के लिए अपने को मजदूरों का नेता, किसानों का नेता, धर्म निरपेक्ष नेता आदि कहना शुरू करते हैं। पर मुश्किल है कि उन्हें विद्यापति पच नहीं पाए। ग्रियर्सन द्वारा मैथिली को हिन्दी से अलग भाषा कहे जाने के बावजूद शुक्ल जी इस तथ्य पर गोबर-मिट्टी लगाने का प्रयास करते हैं, पर स्वयं कहते हैं, ‘‘जिसकी रचना के कारण ये मैथिल कोकिलकहलाए वह इनकी पदावली है। इन्होंने अपने समय की प्रचलित मैथिली भाषा का व्यवहार किया है।’’ इससे आगे की विडम्बना यह है कि यदि विद्यापति की संस्कृत और अवहट्ट की रचनाओं को छोड़ भी दिया जाए, केवल पदावली को लेकर बातें की जाए तो अकेले विद्यापति हिन्दी के आदिकाल और मध्यकाल (पूर्व और उत्तर--दोनों, अर्थात् भक्तिकाल, और रीतिकाल) पर; और विचार के स्तर पर कुछ समय तक के आधुनिक काल तक पर भारी पड़ते हैं। वीर-काव्य, गाथा काव्य, शृंगार काव्य, भक्ति काव्य (शक्ति वन्दना, शिव वन्दना, गंगा स्तुति, विष्णु वन्दना आदि) सबकी उपस्थिति विद्यापति के रचना संसार में मौजूद है। बावजूद इसके, इतिहासकारों के यहाँ महाकवि विद्यापति फुटकल खाते में नजर आते हैं। पर खैर, यह बहस, इस आलेख का विषय नहीं।
विश्वनाथ त्रिपाठी का मानना है कि जयदेव का गीत गोविन्द, विद्यापति की पदावली और सूरदास का सूरसागर एक ही कोटि की रचनाएँ हैं, जिनमें भक्ति का आधार शृंगार है।पूर्व में कहा जा चुका है कि विद्यापति और सूरदास की चर्चा साथ-साथ करने का एक महत्त्वपूर्ण आधार है। यह आधार पदावली के गीतों से सूरदास की रचनाओं की तुलना करने का है। सूरदास का रचना संसार यह स्पष्ट करता है कि ब्रजभाषा में लिखे जाने के बावजूद, विद्यापति पदावली के सौ सवा सौ वर्ष बाद सूर के पद, उस परम्परा का विकसित और परिवर्द्धित रूप है। कुछ स्थानों पर तो परम्परा में कुछ नई कोपलें जोड़ते हुए भी। प्रेम और भक्ति--ये दो तत्व इन दोनों महाकवियों की इन रचनाओं के प्राण तत्व हैं।
सूरदास ब्रजभाषा के पहले प्रतिष्ठित कवि हैं। विद्यापति पदावली की भाँति उनके पद भी गेय हैं और वे मुक्तक हैं। पर उनमें प्रबन्धात्मकता का रस इतना प्रबल है कि उसे लीलापदभी कहा जाता है। विश्वनाथ त्रिपाठी का कहना है, ‘‘उनकी भाषा में साहित्यिकता के साथ चलतापन एवं प्रवाह भी है। कहीं-कहीं वे गीत गोविन्द के वर्णनानुप्रास की शैली भी अपना लेते हैं। उनकी कविता में लोक-साहित्य की सरलता ही नहीं, काव्य की परम्परा से सुपरिचित रूढ़ियों का उपयोग भी है। सूर की एक अन्य विशेषता नवीन प्रसंगों की उद्भावना है। उन्होंने कृष्ण-कथा, विशेषतः बाल-लीला और प्रेम-लीला के अंशों को नवीन मनोरंजन वृत्तों से भर दिया है, जैसे दानलीला, मान लीला, चीरहरण आदि (हिन्दी साहित्य का संक्षिप्त इतिहास/पृ. 42)’’ विद्यापति पदावली के गीतों की गेयधर्मिता, उसके मुक्तक होने के बावजूद उसमें मौजूद प्रबन्धात्मकता, गीतों में सुपरिचित और रूढ़ उपमानों के उपयोग, लोक-साहित्य की सरलता और सहजता, विरह वर्णन में दैनन्दिन जीवन-प्रसंगों के चित्रण, मार्मिकता के आधार तत्व, विरहावस्था में हृदय की नानावृत्तियों के चित्रण...जिस तरह घनीभूत हैं, सूर के यहाँ ये सारे तत्व इसी रूप में मौजूद दिखते हैं। दोनों के यहाँ विरह वर्णन की जीवन्तता देखते ही बनती है। गोपियों की व्याकुलता, निरीहता, विवशता, धीरज के बावजूद बेचैनी, मिलन की उत्कण्ठा...अपनी प्रखर छवियों में व्यक्त हुई है।
विद्यापति की राधा अपने प्रिय के सुमिरन में अपना ही स्वभाव भूल जाती है--
अनुखन माधव माधव सुमिरइत सुन्दरि भेलि मधाई
ओ निज भाव सुभावहि बिसरल अपने गुन लुबधाई।
भोरहि सहचरि कातर दिठि हेरि छल लोचन पानि
अनुखन राधा राधा रटइत आधा आधा बानि।
राधा सँ जब पुनितहि माधव माधव सँ जब राधा
दारुन प्रेम तबहि नहि टूटत बाढ़त बिरहक बाधा।
दुहुँ दिसि दारुदहन जइसे दगधइ आकुल कीट परान
ऐसन बल्लभ हेरि सुधामुखि कबि विद्यापति भान।
कृष्ण का स्मरण करते-करते राधा, कृष्ण रूप में हो जाती है और विरह में राधा-राधा रटने लगती है। फिर होश में आते ही कृष्ण-कृष्ण रटने लगती है। विरह की आग में झुलसती इस नायिका को कवि ने ऐसे अंकित किया है, जैसे लकड़ी के भीतर लगी हुई घुन का कीड़ा हो और लकड़ी की दोनों शिराओं में आग लगा दी गई हो।
सूरदास के श्याम की नायिका जब विरह व्यथा में होती है, तो वह भी ठीक इसी वजन पर विचलित होती है:
सुनो स्याम! यह बात और कोउ क्यों समझाय कहै
दुहुँ दिसि की रति बिरह बिरहिनी कैसे के जो सहै।।
जब राधे, तब ही मुख माधौ-माधौरटति रहै
जब माधौ ह्वै जाति सकल तनु राधा बिरह दहै।।
उभय अग्र दव दारुकीट ज्यों सीतलताहि चहै
सूरदास अति विकल बिरहनी कैसेहु सुखन लहै।।
इस तरह के साम्य दोनों महाकवियों, विद्यापति और सूर के केवल शृंगारिक पदों में ही नहीं, अन्यत्र भी हैं।...
सूरदास भक्ति, वात्सल्य और शृंगार के कवि हैं। उनके सम्बन्ध में कई किम्बदन्तियाँ फैली हैं। एक तो इन्हें जन्मान्ध कहा जाता है। उन्होंने स्वयं ही अपने को जन्म को आन्धरकहा है। किन्तु किसी बड़े कवि की व्यंजना शब्दार्थ से स्पष्ट नहीं होती। अतः जन्म को आन्धरकहने का अभिप्राय सूरदास का बड़प्पन ही है जो स्पष्ट करता है कि वे अपने को अज्ञानी रूप में प्रस्तुत करते हैं। सूर के काव्य में जीवन और प्रकृति के जो सूक्ष्म चित्र मौजूद हैं, उसके विश्लेषण से कोई अल्पबुद्धि भी कह सकता है कि वे जन्मान्ध नहीं रहे होंगे। सूर के बारे में एक मत यह भी है कि कृष्ण भक्त कवि सूरदास ने तीव्र अन्‍तर्द्वन्‍द्व के किसी क्षण में...अपनी आँखें फोड़ ली थीं।
भक्ति साहित्य का विपुल भण्डार विद्यापति के यहाँ भी मिलता है। बल्कि विद्यापति के साहित्य की कई बातें सूर के साहित्य में स्पष्टतः दिखती है। विषय विस्तार यद्यपि सूर के यहाँ विद्यापति की तरह फैला नहीं है। पर, सूर के यहाँ भक्ति, वात्सल्य और प्रेम की गहनता जैसी है, वह विद्यापति से किसी भी मायने में कम नहीं। दोनों महाकवियों के वैचारिक वैशिष्ट्य का केन्द्र लोकसत्तामें, ‘जन-जनमें समाहित है। इन दोनों की रचनाएँ चाहे जिस भी दिशा की हों, उनमें लोकहितऔर लोक मन रंजनकी भावना प्रबल रहती हैं। विषय में कहीं-कहीं कुछ-कुछ भिन्नता जो भी दिखती है, उसका कारण दोनों कवियों में सौ-सवा सौ वर्षों का अन्तराल, दोनों के ऐतिहासिक, भौगोलिक, सामाजिक, पारिवारिक परिवेश; और दायित्वजन्य स्थितियों के अन्तर भी हो सकते हैं। पर समानता की स्थिति तलाशने पर स्पष्ट दिखता है कि दोनों कवि लोकके प्रति एक जैसे अनुरक्त थे। विश्वनाथ त्रिपाठी के अनुसार सूरदास के पहले ब्रजभाषा में काव्य-रचना की परम्परा तो मिल जाती है, किन्तु भाषा की यह प्रौढ़ता, चलतापन और काव्य का यह उत्कर्ष नहीं मिलता। ऐसा लगता है कि सूर ब्रजाभाषा काव्य के प्रवर्तक न हों, किसी परम्परा के चरमोत्कर्ष हों। शुक्ल जी ने सूर को एक ओर जयदेव, चण्डीदास और विद्यापति की परम्परा से जोड़ा है, दूसरी ओर लोकगीतों की परम्परा से। विद्यापति और सूरदास में जो निरीहता, तन्मयता मिलती है, अनुभूतियों को जिस प्रकार बाह्य प्रकृति के ताने-बाने में बुना गया है, वह लोक गीतों की विशेषता है। लोकगीतों में अभिव्यक्ति इतनी निश्छल होती है कि वह शास्‍त्रीयता और सामाजिक विधि-निषेध की मर्यादा का निर्वाह नहीं कर सकती (हिन्दी साहित्य का संक्षिप्त इतिहास/पृ. 39)
दोनों कवियों के यहाँ ऐसी समानता लोकसत्ता में कवि की आस्था का परिचायक है। कबीर और तुलसी जैसे महान मध्यकालीन कवियों की सामाजिक चेतना अत्यन्त प्रखर थी। किन्तु उनके स्‍त्री सम्बन्धी विचारों पर, प्रतीक अर्थों में ही सही, पर उस युग की स्पष्ट छाप है। कबीर स्‍त्री को बुराइयों और अवगुणों की जड़ समझते हैं, उसे नरक का कुण्ड समझते हैं। तुलसी स्‍त्री की पराधीनता को असह्य मानते हुए भी उसकी स्वतन्त्रता पसन्द नहीं करते, उसे पुरुष सत्ता के अधीन रखना पसन्द करते हैं। जबकि उन दोनों प्रखर चेतना वाले कवियों से बहुत पहले विद्यापति के यहाँ स्‍त्री सम्बन्धी धारणाओं का खुलासा हुआ है। स्‍त्री जीवन की पीड़ा का चित्रण और उसकी मार्मिकता साफ-साफ कहती है कि विद्यापति स्‍त्री स्वातन्त्रय के हिमायती थे। उल्लेखनीय है कि प्रेम कोई बन्धन नहीं मानता। वह सारे बन्धनों से परे होता है। प्रेम करना हो, तब भी; और प्रेम का साहित्य रचना हो तब भी, दुनिया का कोई बन्धन स्वीकार्य नहीं होता, वहाँ प्राणी निर्बन्ध होता है, बन्धनों-वर्जनाओं का विरोधी होता है, स्वतन्त्रता और उन्मुक्तता का हिमायती होता है। प्रेम तो ऐसा मनोव्यापार है कि वह स्वयं प्रेमी और प्रेमिका तक को मुक्त करता है, यह प्राणी को मुक्त भी करता है और पूर्ण भी। सूर, विद्यापति के साहित्य का सारा का सारा प्रेमपरक पद इसका प्रमाण हो सकता है। जिसे कबीर ने कहा ढाई आखर प्रेम का, पढ़ै सो पण्डित होई’, उसे सूर और विद्यापति के पद के हवाले से कहा जा सकता है कि प्रेम जब हो जाता है, तो प्राणी, तर्क से हो, बुद्धि से हो, साहस से, पराक्रम से--जैसे भी हो, अपने बन्धनों को उतार फेंकता है।
सूर के काव्य की व्याख्या करते हुए प्रो. मैनेजर पाण्डेय काव्य शास्त्रा के हवाले से विरह की जिन दस दशाओं का उल्लेख करते हैं, वे हैं--अभिलाषा, चिन्ता, स्मरण, गुण कथन, उद्वेग, प्रलाप, उन्माद, व्याधि, जड़ता और मूच्र्छा। इससे आगे प्रो. पाण्डेय सूरदास के पदों में इन अन्तर्दशाओं के होने की चर्चा करते हैं। पर जब विद्यापति पदावली और सूर के पदों को इस सन्दर्भ में साथ-साथ देखें तो कई-कई पदों में इन स्थितियों का बहुत ही मार्मिक चित्रण स्पष्ट दिखता है। जिस तरह विद्यापति के गोपियों की आँखें पूरे जन्म तक रूप निहारती हुई भी तृप्त नहीं होतीं, गोपियाँ तरह-तरह के मिलन के सपने देखतीं, ऊधो को मध्यस्थ कर भावनाओं का आदान प्रदान करतीं, सूर की गोपियाँ भी ऐसे ही करती हैं। सूर के यहाँ तो आँखों को पूरा का पूरा व्यक्तित्व भी मिल जाता है। गोपियों के नेत्र रसलम्पट हैं, कृष्ण के रूप रस पान से अतृप्त हैं, सौन्दर्य लोलुप हैं, लालची हैं और कृष्ण के अभाव में व्याकुल और दीन हैं। गोपियों के नेत्र कृष्ण के वियोग में दुखी, बेचैन और व्यथित हैं। गोपियों के मन की सारी विकलता, विह्वलता, उद्विग्नता, चिन्ता, आशा-निराशा इन नेत्रों के माध्यम से ही व्यक्त हुई है (भक्ति आन्दोलन और सूरदास का काव्य/पृ. 198)
आँखों की चर्चा में विद्यापति और सूरदास--दोनों ने ही अद्भुत छटा दिखाई है। विद्यापति की नायिका की आँखें ऐसी हैं:
लोचन जुगल भृंग अकारे
मधुक मातल उड़ए न पारे
आँखों की भी ऐसी छवियाँ सूर के यहाँ कई जगहों पर दिखती हैं। पर, जहाँ विद्यापति के यहाँ ये आँखें नायिका की हैं, सूर के यहाँ नायक की हैं:
मनहुँ कंज ऊपर बैठे अलि
उड़ि न सकत मकरन्द लोभाने
या फिर
मनहुँ कमल सम्पुट नहँ बीधे
उड़ि न सकत चंचल अलिबारे
विद्यापति की नायिका की आँखें काफी चंचल हैं:
चकित चकोर जोर विधि बाँधल
केवल काजर पासा
सूर कहते हैं,
अंजन गुन अटके नातरु अबही उड़ जाते।
साथ-साथ चर्चा करने पर, विद्यापति और सूरदास में कई बार तो रस, शब्द, भाव, अलंकार के साथ-साथ पंक्ति तक समतुल्य लगने लगते हैं।
विद्यापति कहते हैं:
चंचल लोचन, बाँक निहारए, अंजन शोभा पाय
जनि इन्दीवर, पवने पेलल, अलि भरे उलटाय।
इसी बात को सूर कहते हैं:
चंचल लोचन, बंक निहारनि, खंजन शोभा ताय
जनु इन्दीवर, पवने ठेलल, अलि भरे उलटाय।
आँखों के ये चित्र जिस तरह दोनों के यहाँ समानता रख रहे हैं, वे स्पष्ट करते हैं कि सोच के स्तर पर दोनों महाकवियों ने समान सम्वेदनशीलता की जड़ें पकड़ रखी थी। जहाँ से दोनों की जीवन दृष्टि के सूत्र खुलते थे, वे बिन्दु शायद एक ही थे।
चित्र अंकित करने का कौशल दोनों के यहाँ समान रूप से श्रेष्ठ दिखता है। ऐसा तो प्रायः देखा जाता है कि प्रेम की आकुलता और चित्रण की मार्मिकता वियोग में ज्यादा निखरती है।
वियोग की जिन स्थितियों का चित्रण सूर के यहाँ पूर्वानुराग, मान, प्रवास और करुणा में है, वह परम्परा विद्यापति के यहाँ पहले से मौजूद दिखती है। स्वप्न दर्शन में सूरदास ने भी विद्यापति की ही भाँति गोपियों के विरह की व्यंजना की है। कृष्ण के विरह में व्याकुल गोपियों के मन में कृष्ण की जो प्रेम मूर्ति है, वह वियोग के समय कभी-कभी स्वप्न में आ जाती है। सूर की गोपियाँ जब संयोग की कामना से पुलकित होती रहती हैं, तभी नीन्द टूट जाती है और स्वप्न की वह प्रेममूर्ति विखण्डित हो जाती है फिर विरह की व्यथा बढ़ जाती है। ठीक ऐसे ही पद विद्यापति के यहाँ मौजूद हैं:
सुतलि छलहुँ हम घरबा रे, गरबा मोतिहार
राति जखन भिनसबा रे पिया आएल हमार
केहेन अभागलि बैरिनी रे भाँगलि मोहि नीन्द
भल कए देखि नहिं पाओल रे पिय मुख अरविन्द
विद्यापति और सूरदास के पदों के साम्य पर लम्बी बातचीत की जा सकती है। एक से एक इसके उदाहरण दिए जा सकते हैं। दोनों के पदों की गीतात्मकता, लयात्मकता भाव के लिए मनोहारी बन उठती है। गीतिकाव्य के सुविचारित और तर्क से निर्धारित तत्वों में से: आत्मानुभूति, भाव-घनत्व, भाव-ऐक्य, वैयक्तिकता, अनुभूति और अभिव्यक्ति की संक्षिप्तता, संगीतात्मकता--शब्द, स्वर और भाव का संगीत, कलात्मकता, अकृत्रिमता और रूप वैविध्य प्रमुख माने गए हैं। इन दोनों कवियों के पदों में ये सारे तत्व अपनी पूरी अर्थवत्ता के साथ मौजूद हैं। आलोचकों की राय तो जहाँ फुटकल पंक्तियों में प्रकट होती हैं कि सूर की रचनाशीलता पर विद्यापति का प्रभाव दिखता है, वहीं प्रो. मैनेजर पाण्डेय मानते हैं, ‘‘सूरसागर के लीला विषयक पद गीतकाव्य के एक नवीन स्वरूप का उद्घाटन करते हैं। लीला के पदों में कथा तत्व भी विद्यमान हैं और सघन अनुभूति भी। वास्तव में सूरदास को लीलागान की जो परम्परा जयदेव और विद्यापति से उपलब्ध हुई थी, उसकी मुख्य विशेषताएँ हैं: तीव्र भावानुभूति, मनोरागों के अनुकूल संगीत की राग रागिनियों का प्रयोग, कृष्ण की ललित लीलाओं की रसात्मक व्यंजना, भक्ति और शृंगार का समन्वय और कोमलकान्त पदावली (भक्ति आन्दोलन और सूरदास का काव्य/पृ. 266)’’
प्रो. पाण्डेय तो भ्रमर गीत को नारी की आकुल अन्तरात्मा और तीव्र सम्वेदनशीलता की शाश्वत कहानी मानते हैं (भक्ति आन्दोलन और सूरदास का काव्य/पृ. 200)। विद्यापति और सूर के पदों पर विचार करते हुए यह स्थिति प्रकट होती है कि वस्तुतः हमारे समाज में सामन्ती संस्कार की जड़ें गहराई तक जमी हुई है। इतनी गहराई तक कि यहाँ प्रेम में भी पुरुष-सामन्तवाद घुसा हुआ नजर आता है। प्रेम का अर्थ सामान्य स्थितियों में नारियों और पुरुषों के लिए भिन्न है। नारी के लिए प्रेम का अर्थ सम्पूर्ण समर्पण है तो पुरुष के लिए सम्पूर्ण ग्रहण है। अर्थात् स्‍त्री की त्याग वृत्ति प्रेम है और पुरुष की लोभ वृत्ति पे्रम है। प्रो. मैनेजर पाण्डेय के शब्दों में पुरुष द्वारा निर्मित प्रेम की आचार संहिता का प्रतिफलन पुरुष की रस लोलुप मधुप-वृत्ति में हुई है। पुरुषों ने अपने लोभ को प्रेम का नाम दिया, अपनी स्वार्थी मनोवृत्ति के सहारे नारी की समर्पण भावना और भावुकता का शोषण किया है। नारी की सुकुमारता, सौन्दर्य और यौवन रस का उपयोग कर अन्त में उसे निरस समझकर त्याग देना पुरुष के लिए आम बात है। नित्य नवीन रस के आस्वादन में प्रवृत्त रसिक पुरुष नई मुग्धाओं को अपने सामान्योन्मुख लोभ का साधन बनाता है। पुरुष द्वारा भुक्त, परिव्यक्त, रसरिक्त नारी के सामने रुदन और शिकायत के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है (पृ. 200)’’
विद्यापति और सूर के पदों में पुरुष की यही भ्रमर और स्वार्थी वृत्ति का प्रतिफलन तथा स्‍त्री की इसी व्याकुलता का चित्र अंकित है। राधा-कृष्ण लीला विषयक पदों में विद्यापति के यहाँ कृष्ण के मथुरागमन, गोपी विरह, कुब्जा के प्रति कृष्ण की अनुरक्ति, गोपियों की व्याकुलता, पुरुष की भ्रमर-वृत्ति इत्यादि के जो चित्र अंकित हुए, ब्रजभाषा में वे पहली बार सूरदास के यहाँ संगठित और सुगठित रूप में हैं। सूर से पहले ब्रजभाषा में भ्रमरगीत काव्य की ऐसी सुगठित छवि नहीं दिखती। दौत्य वृत्ति का जो स्वरूप विद्यापति के प्रेम पदों में दिखता है, वह सूर के यहाँ भी है। मजे की बात यह है कि इस वृत्ति में जो उद्धव उनके यहाँ हैं, वही उद्धव इनके यहाँ भी है। गुण-गायन और व्यथा-सन्देश--प्रेम के दौत्य कर्म में ये ही प्रमुख हैं। और ये दोनों तत्व दौत्य वृत्ति वाले पदों में विद्यापति और सूर--दोनों के यहाँ बहुत प्रखर रूप में हैं। सामान्यतया आज भी होता है कि प्रेमी का सखा या प्रेमिका की सखी द्वारा इस पुण्य कर्म का निर्वाह होता है। दोनों पक्षों के रहस्यों को मात्र इन दोनों तक ही सीमित रखने वाले सखा को ही देवर और साली का आदर्श माना जा सकता है, जो दोनों में मिलन की उत्कण्ठा बढ़ाए, दोनों के प्रेम को और घना करे तथा विरह सन्देश देकर इस अन्तराल को नष्ट करे। सूर और विद्यापति के काव्य इसके प्रबल उदाहरण हैं।
राधा-कृष्ण प्रेम से सम्बन्धित जितने भी पद विद्यापति के हैं, वहाँ दोनों पक्षों की संयोगावस्था की स्मृति, विरहावस्था की व्याकुलता व्यक्त करते समय नायक और नायिका दोनों की कई-कई छवियाँ अंकित हुई हैं। उनके यहाँ राधा कभी अनुरागवती किशोरी है, कभी प्रेममय युवती है, असाधारण सुन्दरी है, स्वकीया है, कामिनी है, मानिनी है, वियोगिनी है, प्रौढ़ा है, अभिसार के लिए जुगत बैठाती चतुर सयानी है, लाज और पारिवारिक बन्धन को तोड़ने के लिए व्यग्र विलासिनी है, विरह में विक्षिप्त-व्यथित और नायक को हर तरह से समर्पित पुष्पांजलि है, नायक को उपालम्भ और उलहना तथा उसकी स्वार्थी एवं रसिक वृत्ति पर उन्हंे धिक्कारती हुई मान-मुग्धा है, प्रेमरस दीवानी है, और क्या-क्या है...इसी तरह भावानुभूतियों और स्थितियों की भी कई-कई मनोदशाएँ व्यक्त हुई हैं। वियोग की वेदना और प्रिय प्रवास के दुख आदि के चित्रण यहाँ भरे पड़े हैं। ये सारे तत्व मिलकर विद्यापति के पदों में कथात्मकता, पद लालित्य और रागात्मकता कूट-कूट कर भरते हैं, जिससे उन पदों में वे सारे दृश्य जीवन्त और मूर्तिमान हो उठते हैं। सूर के सारे लीला पद इन दशाओं से युक्तियुक्त हैं। नायिका के विरह वर्णन, नख शिख वर्णन, मनोदशा विवरण, सबमें सूरदास ने इन स्थितियों को लोकानुरंजकता से इस कदर भरा है कि वे विद्यापति के पदों के वजन पर ही लोक मनोहारी हैं। नायिका के देह वर्णन में जहाँ विद्यापति कहते हैं:
पल्लवराज चरणयुग शोभित
गति गजराजक भाने
कनक कदलि पर सिंह सँवारल
तापर मेरु समाने
इस बात को सूरदास कहते हैं:
अद्भुत एक अनुपम बाग
जुगल कमल पर गजवर क्रीड़त
तापर सिंह करत अनुराग
नारी-देह को बगीचे के रूप में देखने की जो परम्परा विद्यापति ने शुरू की, स्‍त्री अंगों के लिए सौन्दर्य के जो प्रतिमान जंगल के पशु-पक्षियों, ग्रह-नक्षत्रांे, पेड़-पौधों, चाँद तारों से लेने की जो परम्परा विद्यापति ने शुरू की, सूर के यहाँ वे सब मूर्तिमान लग रहे हैं।
विद्यापति की नायिका के नाभि विवर से निकली हुई नागिन(रोमावली) उसके सुवासित साँसों की प्यास में ऊपर चलती है। पर नायिका की नाक को देखने पर उसे गरुड़ की चोंच समझ लेती है और डर के मारे पर्वतों(स्तनों) के सन्धिस्थल में छुप जाती है:
नाभि-विवर सँय लोभ लतावली
भुजग निसास पियासा
नासा खगपति चंचु भरम भय
कुच गिरि सन्धि निवासा
सूरदास की नायिका की शारीरिक दशा भी लगभग यही है:
नाभि परस लौं रस रोमावली, कुच-जुग बीच चली
मनहुँ विवर तें उरग रिंग्यो, तकि गिर की सन्धि-थली
विद्यापति की सद्यः स्नाता अपने स्तनों को भुजपाश में बाँध लेती है ताकि वह उड़ न सके:
ते संका भुज पासे
बाँधि धएल उड़ि जाएत अकासे
और सूरदास की नायिका आँचल से ढककर, दबाकर रखती है:
राखति ओटकोटि जतनन करि झाँपति आँचल झारि
खंजन मनहुँ उड़न को आतुर सकत न पंख पसारि
विद्यापति की राधा के बालों को देखकर चामरि पर्वत-कन्दरा में समा गई, मुँह देखकर शर्म से चाँद, आकाश भाग गया, आँख देखकर हरिण, स्वर सुनकर कोयल, चाल देखकर हथिनी जंगल चली गई। इधर सूरदास के नायक के शरीर को देखकर
कोऊ जल कोऊ वन में रहे, दुरि कोऊ गगन समाने
मुख निरखत ससि गयो अम्बर को तड़ित दसन छवि हेरो
विद्यापति की नायिका का नीबीबन्ध कृष्ण खोलते हैं--
नीबीबन्ध हरि किए कर दूर
और सूर के नायक यह काम धीरे-धीरे करते हैं--
नीबी खोलत धीरे जुदराई
विद्यापति के कृष्ण भी विहार करते हैं--
बिहरए, बिहरए नवल किशोर
सूर की राधा और कृष्ण दोनों--
नवल गोपाल नवेली राधा, नए प्रेम रस पागे
नव तरुवर बिहारि दोउ क्रीड़त, आपु-आपु अनुरागे
कामदंश की वेदना से व्याकुल विद्यापति की नायिका का सन्देश दूती द्वारा कृष्ण को पहुँचाया जाता है--
मदन भुजंग डस बालहि तोरी
और सूरदास की नायिका की दूती कहती है--
जो कारण तुम यह वन सोयव, सौतिन मदन भुअंगम खाई।
यहाँ तक कि विद्यापति के वजन पर सूर ने दृष्टिकूट वाले पद भी लिखे हैं:
सारंग नयन वयन पुनि सारंग सारंग तसु समधाने
सारंग उपर उगल दस सारंग केलि करथि मधुपाने  --विद्यापति
और,
सारंग सारंग धरहि मिलावहु
सारंग विनय करत सारंग सों, सारंग दुख बिसरावहु
सारंग समय दहत अति सारंग सारंग तिनहि दिखावहु
सारंग पति सारंग घर जैहें, सारंग जाइ मनावहुँ
सारंग चरन सुभगकर सारंग, सारंग नाम बुलाबहु
                                                --सूरदास
श्लेष, यमक, उत्प्रेक्षा, रूपक, अनुप्रास, उपमा आदि अलंकारों की समानता तो दोनों की रचनाओं में है ही। बहुअर्थी शब्दों के सद्-दोहन में और इस शैली के उपयोग में दोनों महाकवि समान रूप से उद्यमशील दिखते हैं।
सूरदास की रचनाधर्मिता की चर्चा जिस तरह विद्यापति की चर्चा के बिना पूरी नहीं हो सकती, उसी तरह विद्यापति की चर्चा भी सूरदास के बिना पूरी नहीं हो सकती। सूरदास ऐसे अकेले परवर्ती रचनाकार हैं जहाँ विद्यापति का प्रभाव सबसे ज्यादा और पूरे विश्वास के साथ मौजूद है। कई बार तो केवल भाषा का अन्तर दिखता है। ठीक इसी तरह विद्यापति भी ऐसे लगभग अकेले पूर्ववर्ती रचनाकार हैं जहाँ सूरदास की रचनाधर्मिता के स्रोत अधिकतम दिखते हैं। विषय बोध, भावबोध, लयबोध, ताल बोध, अनुभूति, संगीतात्मकता, छन्द, अलंकार, रूप रस आदि से इतना अधिक साम्य किन्हीं अन्य रचनाकारों के यहाँ दिखना दुर्लभ है।
गीतिमयता, सहज बोधता, शब्द सरलता, कथात्मकता, पदलालित्य और लोकजीवन की तात्विकता इन दोनों के यहाँ इतना घनीभूत है कि यह कहने की मजबूरी आ जाती है कि इन पदों की रचना लोकजीवन के मार्मिक तन्तुओं को ध्यान में रखकर की गई है।
मजे की बात है कि दोनों भक्त कवि हैं, पर उनके लीला पदों की संरचना में राधा और कृष्ण का चरित्र सामान्यतया अलौकिक रूप में नहीं दिखाया गया है। शुद्ध रूप से दोनों के नायक और नायिका गृहस्थ लगते हैं, सामाजिक और आस-पास के लगते हैं, इनके प्रेम, इनके संयोग, वियोग, मान, अभिसार, रूपासक्ति, प्रथम मिलन, रति विलासकृसबके सब परम सामाजिक और परम पारिवारिक लगते हैं। विद्यापति के नायक-नायिका को प्रेम दुहु मुख हेरइत दुहु भेलभोरसे हुआ तो सूर के नायक-नायिका को राजपथ पर यात्र करते हुए चलल राजपथ दुहु उद्झाईं। दोनों के यहाँ नायिका की लाज, संकोच, लुका छिपीकृसब इहलौकिक हैं। और कारण भी यही है कि आज भाषा और क्षेत्र की सीमा को तोड़कर विद्यापति और सूरदास अपने लीला पदों के साथ जन-जन के मस्तिष्क पर बसे हुए हैं। बुद्धिजीवियों के शोधग्रन्थों से लेकर टोले मुहल्ले के लोकाचारों और सांस्कृतिक-सामाजिक अनुष्ठानों में, शिक्षित से अनपढ़ महिलाओं के कण्ठ में इनके पद बसे हुए हैं--संस्कार गीत के रूप में, लोकगीत के रूप में, भजन कीर्तन के रूप में, लोकोक्ति-मुहावरों के रूप में और अन्ततः जीवन-प्रक्रिया के रूप में। कह सकते हैं कि विद्यापति और सूरदास के लीला पदों में लोक जीवन की एक-एक धड़कन मौजूद है।